Biography of Swami Dayanand Saraswati

>>> स्वामी दयानंद सरस्वती का जीवन-परिचय <<<

स्वामी दयानंद सरस्वती का जन्म 1824 में गुजरात राज्य के काठियावाड़ जिले के टंकारा गाँव में हुआ समृद्ध तथा सूर संपन्न ब्राह्मण परिवार में हुआ इनके पिता का नाम अंबा शंकर था !

मूल नक्षत्र में जन्म लेने के कारण उनका नाम मूलशंकर रखा गया ! एक बार शिवरात्रि के दिन यह अपने पिता के साथ शिवालय में पूजा कर रहे थे ! अकस्मात एक चूहा शिवलिंग पर चढ़कर यत्र – तत्र घूमने लगा और प्रसाद खाने लगा यह देखकर इनके बालक मन पर मूर्ति पूजा के विषय में शंका उत्पन्न हो गई उसी समय उन्होंने प्रण किया कि वह सच्चा ज्ञान प्राप्त करेंगे और ईश्वर को प्राप्त करने का मार्ग हो खोजेंगे !

मूलशंकर बचपन से ही विलक्षण प्रतिभा के धनी थे ! घर में पूजा-पाठ और शिव भक्ति का वातावरण होने के कारण भगवान शिव के प्रति बचपन से ही उनके मन में गहरी श्रद्धा और विश्वास था ! चौदह वर्ष की आयु तक मूलशंकर ने सम्पूर्ण संस्कृत व्याकरण, ‘सामवेद’ और यजुर्वेद का अध्ययन कर लिया था !

>> स्वामी दयानंद सरस्वती के जीवन के महत्वपूर्ण घटना <<

टंकारा गाँव में एक शिव-मंदिर था , एक बार शिवरात्रि के दिन रात्रि जागरण में घटी घटना ने इनके जीवन को नई दिशा दी ! रात्रि जागरण के दौरान इन्होंने मंदिर में देखा कि शिव की मूर्ति पर एक चूहा चढ़कर प्रसाद खा रहा है तथा मूर्ति को गंदा कर रहा है ! उनके मन में तरह-तरह के सवाल पैदा होने लगे कि यदि शिव चेतन है तो फिर यह कैसे हो सकता है !

उन्हें लगा कि शिवजी की मूर्ति पत्थर मात्र है , इस पत्थर में शिव नहीं हो सकते , यही सोचकर मूलशंकर ने मूर्ति पूजा का विरोध करने का निश्चय कर लिया !

इसके बाद छोटी बहन और इनके चाचा की मृत्यु ने इन्हें सांसारिक नश्वरता का बोध करा दिया तथा 21 वर्ष की आयु में उन्होंने घर छोड़ दिया ! 22 वर्ष की आयु में जब इनके घर के लोगों ने इनका विवाह करना चाहा तो इन्होंने दृढ़ता से विवाह के प्रस्ताव को अस्वीकार कर दिया और घर त्याग कर सन्यास ले लिया ! सन्यास लेने के बाद इनका नाम मूलशंकर से बदलकर दयानंद सरस्वती हो गया !

स्वामी दयानंद के गुरु दंडी स्वामी विरजानंद थे , वे अंधे थे और मथुरा नगरी में रहते थे जब तक स्वामी दयानंद मथुरा में रहे उन्होंने गुरु जी की बड़ी सेवा कि उनकी सच्ची सेवा के कारण गुरु जी ने उन्हें जगत प्रसिद्ध होने का आशीर्वाद दिया !

>>> मूलशंकर द्वारा गुरु की खोज <<<

कई वर्ष तक मूलशंकर गुरु की खोज में इधर-उधर भटकते रहे। अब वह दयानन्द बन गए थे। आखिर मथुरा के स्वामी विरजानन्द दांडी के आश्रम में उन्हें स्थान मिला। स्वामी विरजानन्द दांडी ने आपको धार्मिक शिक्षा-दीक्षा शिक्षा पूरी करके दयानंद गुरु दक्षिणा देने के लिए स्वामी विरजानन्द दांडी के समक्ष उपस्थित हुए।

>> स्वामीजी ने कहा,<<

“इस समय यह देश अन्धकार में भटका हुआ है। इसलिए मैं तुमसे में यह आशा करता हूँ कि तुम लोगों को ज्ञान और प्रकाश का सही मार्ग दिखाओगे।. भारतीय जनता को धार्मिक पाखण्ड से बचाओगे और असली वैदिक धर्म का ज्ञान दोगे। मैं इसे ही तुम्हारी गुरु दक्षिणा मानूँगा। उन दिनों भारतीय समाज में अनेक बुराइयाँ घुन बनकर उसे खोखला कर रही थीं। जैसे तीर्थ स्थानों में स्वर्ण आभूषणों से सजी अपनी पत्नी को, पण्डों को दान में दे देना, फिर दूसरे लोगों द्वारा उस स्त्री को पण्डों से खरीद लेना, मन्दिरों में कन्याओं को देवता की नौकरी और सेवा करने के लिए चढ़ा देना। इसके साथ ही छुआछूत और अन्ध विश्वास अपनी चरम सीमा पर था। महिलाएँ और अछूत वेद पाठ नहीं सुन सकते थे। विदेश यात्रा समाज विरोधी काम था। ऐसे घोर अत्याचारी और भटके हुए समाज को सही रास्ते पर लाना तथा उसे सुधारना आसान काम न था। स्वामी दयानन्द गाँवों, शहरों, कस्बों में घूम-घूमकर धार्मिक पाखण्डों, सामाजिक बुराइयों का खण्डन करने लगे। वह जनता को सच्चाई बताने लगे। समाज के इस कोढ़ को दूर करने के लिए प्रयत्नशील हो गए। लेकिन उन्हें इस काम में जबरदस्त विरोध का सामना भी करना पड़ा। कई बार उन्हें जान से मार डालने की कोशिश हुई। किन्तु वे बड़े साहस से अपने काम में डटे रहे। उन्होंने समाज को बदलने का जो संकल्प लिया था, उसे वह हर कीमत पर पूरा करना चाहते थे।स्वामी जी ने भारतीय संस्कृति का पुनरुद्धार करने के लिए 1865 ईस्वी में मुंबई में आर्य समाज की स्थापना की उनके समय में समाज में पाखंड , ढोंग और कई प्रकार की कुप्रथाएँ प्रचलित थी । स्वामी दयानंद ने गांव-गांव शहर शहर घूम कर समाज में प्रचलित इन प्रथाओं का विरोध किया। उन्होंने उन लोगों को जो समाज के अत्याचार के कारण मुसलमान और ईसाई हो गए थे उन्हें शुद्ध करके पुनः हिंदू धर्म में मिलाने का महान कार्य किया । इनकी इच्छा थी कि सभी भारती आपस में प्रेम सूत्र में बंधकर तथा संगठित होकर देश से विदेशी शासन को उखाड़ फेंके और भारत माता को स्वतंत्र करें ।स्वामी जी ने वेदों का नए ढंग से अर्थ किया उनका अनुवाद किया और उन पर भाषण किया उनकी लिखी पुस्तक सत्यार्थ प्रकाश हिंदी की एक अमर कृति है स्वामी जी कभी विदेश नहीं गए थे ।

>>> स्वामी दयानंद सरस्वती द्वारा आर्य समाज की स्थापना एवं अन्य कार्य <<<

6 अप्रैल, 1875 को स्वामीजी ने बंबई में आर्य समाज की स्थापना की। इससे पहले 1863 में शिक्षा प्राप्त कर गुरु की आज्ञा से धर्म सुधार हेतु ‘पाखण्ड-खण्डिनी पताका’ फहराई।12 जून 1875 को आपने ‘सत्यार्थ प्रकाश’ की रचना शुरू की तथा वेद भाष्यों की रचना की। इन्होंने भारत, ‘भारतीयों के लिए’ तथा ‘वेदों की ओर लौटो’ के नारे दिए। स्वामीजी ने धर्म परिवर्तन कर चुके लोगों को पुन: हिंदू बनाने के लिए ‘शुद्धि आंदोलन’ चलाया। स्वामी दयानन्द सरस्वती के विचारों का प्रचार बड़ी तेजी से हुआ। सामाजिक क्रांति का वह दौर अभूतपूर्व था। कई बार स्वामीजी को धोखे से जहर देने की कोशिश की गई। उन्हें अपमानित और दण्डित करने के प्रयत्न भी किए गए। किन्तु शत्रुओं को सफलता न मिली। दूसरी ओर उनके तर्कों के सामने बड़े-बड़े विद्वान मौन हो जाते। वह कहते कि अगर गंगा नहाने, सिर मुंडाने या भभूत लगाने से स्वर्ग मिलता है तो मछली, भेड़ और गधा सबसे पहले स्वर्ग जाते। इसलिए यदि हम अपने पूर्वजों को सुखी और शांत बनाना चाहते हैं तो उनकी सेवा करें। उनके मरने पर श्राद्ध करना, ब्राह्मणों को खिलाना और जीते-जी दुःख देना – सच्चा धर्म नहीं है, सच्ची सेवा नहीं है। स्वामी दयानन्द ने बाल-विवाह और छूआछूत का भी घोर विरोध किया था। आपने कहा कि जन्म से सभी समान हैं। कर्मों के अनुसार ही वर्ण निश्चित हुए हैं। किन्तु जिस प्रकार न कोई ऊँचा है, न नीचा, उसी तरह समाज में विभिन्न जातियों के बीच छोटे-बड़े और ऊँच-नीच की भावना नहीं होनी चाहिए। उन्होंने स्पष्ट कहा कि हरिजन भी ब्राह्मणों के कार्य करके ब्राह्मण पद पा सकता है। दयानंद एंग्लो वैदिक कॉलेज एवं गुरुकुल” की स्थापविद्या प्रचार के लिए स्वामी दयानन्द की प्रेरणा से ही लाला हंसराज ने 1886 में लाहौर में “दयानंद एंग्लो वैदिक कॉलेज” की स्थापना की तथा स्वामी श्रद्धानंद ने 1901 में हरिद्वार के निकट कांगड़ी में “गुरुकुल” की स्थापना की। आपने स्त्री शिक्षा पर विशेष बल दिया। विधवा-विवाह का प्रचार किया। साथ ही अनाथ आश्रम और ‘विधवा-आश्रम खुलवाए।

>>> स्वामी दयानंद सरस्वती की मृत्यु कैसे हुई <<

स्वामीजी जोधपुर नरेश महाराज जसवन्त सिंह के निमंत्रण पर जोधपुर गये हुए थे। वहाँ पर उन्होंने “नन्हीजान” नामक वेश्या का अनावश्यक हस्तक्षेप और महाराज जसवन्त सिंह पर उसका अत्यधिक प्रभाव देखा। स्वामीजी ने महाराज को इस बारे में समझाया तो उन्होंने स्वामी जी की बात मानकर ‘नन्ही जान’ से संबंध तोड़ लिए। इससे “नन्ही जान” स्वामीजी के विरुद्ध हो गई। उसने स्वामीजी के रसोइए कलिया उर्फ की सहायता से उनके दूध में पिसा हुआ काँच डलवा दिया जिससे कि 30 अक्टूबर 1883 को आपकी मृत्यु हो गई।

>>> महर्षि दयानंद सरस्वती जयंती पर 20 वाक्य <<<

भारतीय संस्कृति में व्याप्त विभिन्न प्रकार की कुरितीयो को बदलने तथा खत्म करने के लिए अनेकों महापुरुषों ने अपना-अपना योगदान दिया। ऐसे ही भारत में जन्में एक महान ऋषि थे महर्षि दयानंद सरस्वती जी जिन्होंने सनातन धर्म के प्रचार प्रसार साथ-साथ समाज में हो रही धर्म के प्रति अनुचित क्रिया कलापों को रोकने में मुख्य भूमिका निभाई थी। 1) स्वामी दयानंद सरस्वती जी का जन्म 12 फरवरी 1824 को गुजरात के मोरबी नामक गाँव में हुआ था।2) स्वामी दयानंद सरस्वती जी का असली नाम मूलशंकर था पिता का नाम अम्बा शंकर तथा माता का नाम अमृतबाई था।3) उनके पिताजी महान शिव भक्त के साथ-साथ एक जमींदार थे, इसलिए उनका बचपन बहुत ही सुख-समृद्धि में बीता था।4) दयानंद सरस्वती जी बड़े कुशाग्र बुद्धि थे वे केवल 14 वर्ष की आयु में ही सामवेद यजुर्वेद तथा संस्कृत व्याकरण का सम्पूर्ण कंठस्थ था।5) अपने सगे चाचा की मृत्यु से वे विरक्त हो गए थे, औऱ जब पिता उनका विवाह कराना चाहते थे वह घर छोड़ कर चले गए और सत्य की खोज में इधर-उधर भटकने लगे।6) अनेको साधु महात्माओं से मिलने के पश्चात एक दिन वह मथुरा में स्वामी विरजानंद जी से मिले और उन्हें गुरु मानकर वेदों व धार्मिक ग्रंथों का अध्ययन करने लगे।7) स्वामी विरजानंद ने गुरु दक्षिणा के रूप में यह प्रण लिया कि वह सदैव वेद-वेदांत आदि का प्रचार-प्रसार करेगे और स्वामी दयानंद जी ने अंत तक इस प्रण को निभाया।8) स्वामी दयानंद जी का 1857 की क्रांति में अभूतपूर्व योगदान रहा औऱ सर्वप्रथम स्वराज्य का नारा दिया जिसे बाद में लोकमान्य तिलक ने आगे बढ़ाया।9) स्वामी दयानंद सरस्वती ने 10 अप्रैल 1875 को आर्य समाज की स्थापना की तथा बाल विवाह, सती प्रथा जैसी अनेको कुरीतियों के विरुद्ध कदम उठाए।10) स्वामी जी 62 वर्ष की आयु में धोखे से विष पिला दिया गया था फलस्वरूप उनकी मृत्यु हो गई थी।11) स्वामी दयानंद सरस्वती एक ऐसे महान व्यक्ति थे जिन्होंने अपना पूरा जीवन मानवता, देश और धर्म की भलाई में समर्पित कर दिया था।12) उनके आंदोलन का लक्ष्य था हिन्दू समाज को अंधविश्वास, पाखंड और अनेको कुरीतियों से बाहर निकालना तथा अन्य मतों के अनुयायियों की गलत अवधारणाओं का भी विरोध किया करना।13) महर्षि दयानन्द सरस्वती जी ने अनेक स्थानों की यात्रा की हरिद्वार में कुंभ के अवसर पर ‘पाखण्ड खण्डिनी पताका’ फहराया।14) उन्होने 10 अप्रैल 1875 को स्वामी विरजानंद की प्रेरणा से आर्यसमाज की स्थापना की जो एक समाज सुधारक आन्दोलन सिध्द हुआ।15) सन् 1883 में जोधपुर के राजा जसवंत सिंह के महल में उनका अन्तिम दिन था क्योंकि किसी ने उन्हें छल से विष पिला दिया था।16) दयानंद सरस्वती जी ने भारत में भ्रमण करने के दौरान एक योजना चलाई जिसका नाम रोटी और कमल योजना रखा जिससे देश की जनता को जागरूक करने में सहायता मिली।17) महर्षि दयानंद एक महान कर्मयोगी सन्यासी थे जिन्होने सही अर्थों में अपने जीवन में सन्यास को चरितार्थ किया और संन्यास के सही अर्थ से दुनिया को अवगत कराया।18) एक महात्मा होने के साथ-साथ एक विद्वान लेखक भी थे जिन्होने बहुत सी पुस्तकें लिखी जिनमें सत्यार्थ प्रकाश सर्वाधिक लोकप्रिय ग्रंथ है।19) वास्तव में आर्यसमाज एक राष्ट्रवादी आन्दोलन था जिसके द्वारा स्वामी जी ने जातिवाद, अशिक्षा, अन्धविश्वास और महिलाओ पर अत्याचारों के विरुद्ध अपनी आवाज उठाई।20) ऋषयो मंत्र दृष्टारः अर्थात वेद मंत्रों का अर्थ दृष्टा ऋषि होता है इसलिए स्वामी दयानंद सरस्वती जी को महर्षि कहा जाता है।

>>> निष्कर्ष <<<

आज हम जिस स्वतंत्र और आधुनिक भारत में सम्मानपूर्वक जी रहे है यह स्वामी दयानंद सरस्वती जैसे महापुरुषों की ही देन है ! आर्यसमाज की स्थापना की तथा स्वामी जी के अचंभित कर देने वाले व्याख्यानों से प्रभावित होकर युवा आर्यसमाज की ओर मुड़ने लगे व आर्य समाज न केवल भारत में ही नही बल्कि दुनिया के अन्य हिस्सों में भी बहुत सक्रिय हुआ है !

प्रश्न 1- महर्षि दयानंद सरस्वती ने अपनी प्रारंभिक शिक्षा कहा से प्राप्त की थी ?

उत्तर- महर्षि दयानंद सरस्वती ने अपनी प्रारंभिक शिक्षा अपने घर से ही प्राप्त की थी !

प्रश्न 2 महर्षि दयानंद सरस्वती जी के चाचा जी की मृत्यु कब हुई थी ?

उत्तर- उनके चाचा जी की मृत्यु सन् 1846 में हुई थी !

नाम – स्वामी दयानंद सरस्वती

जन्म- 1824 ई.

पिता- अम्बाशंकर

निधन- 1883

जन्म स्थान- टंकारा गाँव, कठियावाड़ गुजरात

बचपन का नाम- मूल शंकर

गुरू का नाम – स्वामी विरजानन्द दांडी, मथुरा

स्वामी दयानंद सरस्वती की रचना- सत्यार्थ प्रकाश 1875, ऋग्वेदादि भाष्य

स्वामी दयानंद सरस्वती द्वारा की गयी स्थापना – गुरुकुल, कांगड़ी हरिद्वार के निकट आर्य समाज 1875

दयानन्द एंग्लो वैदिक गोलमेज 1886 लाहौर

स्वामी दयानंद सरस्वती का नारा- वेदों की ओर लौटो, भारत, भारतीयों के लिए आंदोलन स्वामी दयानंद सरस्वती द्वारा चलाया गया आंदोलन – शुद्धि आंदोलन

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