>>> महामना मदनमोहन मालवीय का जीवन परिचय <<<
महामना मदन मोहन मालवीय काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के प्रणेता तो थे ही इस युग के आदर्श पुरुष भी थे। वे भारत के पहले और अन्तिम व्यक्ति थे जिन्हें महामना की सम्मानजनक उपाधि से विभूषित किया गया !
पत्रकारिता, वकालत, समाज सुधार, मातृ भाषा तथा भारतमाता की सेवा में अपना जीवन अर्पण करने वाले इस महामानव ने जिस विश्वविद्यालय की स्थापना की उसमें उनकी परिकल्पना ऐसे विद्यार्थियों को शिक्षित करके देश सेवा के लिये तैयार करने की थी जो देश का मस्तक गौरव से ऊँचा कर सकें , मालवीयजी सत्य, ब्रह्मचर्य, व्यायाम, देशभक्ति तथा आत्मत्याग में अद्वितीय थे !
इन समस्त आचरणों पर वे केवल उपदेश ही नहीं दिया करते थे अपितु स्वयं उनका पालन भी किया करते थे , वे अपने व्यवहार में सदैव मृदुभाषी रहे , कर्म ही उनका जीवन था , अनेक संस्थाओं के जनक एवं सफल संचालक के रूप में उनकी अपनी विधि व्यवस्था का सुचारु सम्पादन करते हुए उन्होंने कभी भी रोष अथवा कड़ी भाषा का प्रयोग नहीं किया !
आगे चलकर यही जातिसूचक नाम उन्होंने भी अपना लियाउनके पिता पण्डित ब्रजनाथजी संस्कृत भाषा के प्रकाण्ड विद्वान थे !
ढाई वर्ष तक संपादक के पद की जिम्मेदारी संभालने के बाद वह एल.एल.बी. की पढ़ाई के लिए इलाहाबाद वापस चले आए !
1891 में उन्होंने अपनी एल.एल.बी. की पढ़ाई पूरी की और इलाहाबाद जिला न्यायालय में प्रेक्टिस शुरू कर दी !
वर्ष 1893 में प्रगति करते हुए वह इलाहाबाद उच्च न्यायालय में प्रेक्टिस करने लगे !
वर्ष 1907 में मदन मोहन ने ‘‘अभ्युदय‘‘ नामक हिंदी साप्ताहिक समाचार पत्र शुरू किया और 1915 में इसे दैनिक समाचार पत्र में तब्दील कर दिया ! जीवनकाल के प्रारम्भ से ही मालवीय जी राजनीति में रुचि लेने लगे और 1886 ई. में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के दूसरे अधिवेशन में सम्मिलित हुए , मालवीय जी दो बार 1909 तथा 1918 ई. में कांग्रेस के अध्यक्ष हुए !
1902 ई. में मालवीय जी उत्तर प्रदेश ‘इंपीरियल लेजिस्लेटिव काउंसिल’ के सदस्य और बाद में ‘सेंट्रल लेजिस्लेटिव असेंबली’ के सदस्य चुने गये , मालवीय जी ब्रिटिश सरकार के निर्भीक आलोचक थे और उन्होंने पंजाब की दमन नीति की तीव्र आलोचना की, जिसकी चरम परिणति जलियांवाला बाग़ काण्ड में हुई !
वे कट्टर हिन्दू थे, परन्तु शुद्धि (हिन्दू धर्म को छोड़कर दूसरा धर्म अपना लेने वालों को पुन: हिन्दू बना लेते) तथा अस्पृश्यता निवारण में विश्वास करते थे , वे तीन बार हिन्दू महासभा के अध्यक्ष चुने गये , उनकी सबसे बड़ी उपलब्धि 1915 ई. में ‘काशी हिन्दू विश्वविद्यालय’ की स्थापना है ! विश्वविद्यालय स्थापना के लिए उन्होंने सारे देश का दौरा करके देशी राजाओं तथा जनता से चंदा की भारी राशि एकत्रित की !
‘हिन्दी साहित्य सम्मेलन’ जैसी साहित्यिक संस्थाओं की स्थापना द्वारा ‘काशी हिन्दू विश्वविद्यालय’ तथा अन्य शिक्षण केन्द्रों के निर्माण द्वारा और सार्वजनिक रूप से हिन्दी आन्दोलन का नेतृत्व कर उसे सरकारी दफ़्तरों में स्वीकृत कराके मालवीय जी ने हिन्दी की सेवा की उसे साधारण नहीं कहा जा सकता !
उनके प्रयत्नों से हिन्दी को यश विस्तार और उच्च पद मिला है किंतु इस बात पर कुछ आश्चर्य होता है कि ऐसी शिक्षा-दीक्षा पाकर और विरासत में हिन्दी तथा संस्कृत का ज्ञान प्राप्त करके मालवीय जी ने एक भी स्वतंत्र रचना नहीं की !
उनके अग्रलेखों, भाषणों, तथा धार्मिक प्रवचनों के संग्रह ही उनकी शैली और ओज पूर्ण अभिव्यक्ति के परिचायक के रूप में उपलब्ध है , इसमें कोई सन्देह नहीं कि वे उच्च कोटि के विद्वान, वक्ता और लेखक थे , पंडित मदन मोहन मालवीय ने स्वतंत्रता आंदोलन में भाग लेकर 35 साल तक कांग्रेस की सेवा की !
उन्हें सन् 1909, 1918, 1930 और 1932 में कांग्रेस का अध्यक्ष चुना गया। मालवीयजी एक प्रख्यात वकील भी थे। एक वकील के रूप में उनकी सबसे बड़ी सफलता चौरीचौरा कांड के अभियुक्तों को फांसी से बचा लेने की थी। चौरी-चौरा कांड में 170 भारतीयों को सजा-ए-मौत देने का ऐलान किया गया था, लेकिन महामना ने अपनी योग्यता और तर्क के बल पर 151 लोगों को फांसी के फंदे से छुड़ा लिया था। शिक्षा के क्षेत्र में महामना का सबसे बड़ा योगदान काशी हिंदू विश्वविद्यालय के रूप में दुनिया के सामने आया था। उन्होंने एक ऐसी यूनिवर्सिटी बनाने का प्रण लिया था, जिसमें प्राचीन भारतीय परंपराओं को कायम रखते हुए देश-दुनिया में हो रही तकनीकी प्रगति की भी शिक्षा दी जाए। अंतत: उन्होंने अपना यह प्रण पूरा भी किया। यूनिवर्सिटी बनवाने के लिए उन्होंने दिन रात मेहनत की और 1916 में भारत को बीएचयू के रूप में देश को शिक्षा के क्षेत्र में एक अनमोल तोहफा दे दिया। कालाकाकर के देशभक्त राजा रामपाल सिंह के अनुरोध पर मालवीयजी ने उनके हिन्दी अंग्रेजी समाचार पत्र हिन्दुस्तान का 1887 से सम्पादन करके दो ढाई साल तक जनता को जगाया। उन्होंने कांग्रेस के ही एक अन्य नेता पं0 अयोध्यानाथ का उनके इण्डियन ओपीनियन के सम्पादन में भी हाथ बँटाया और 1907 ई0 में साप्ताहिक अभ्युदय को निकालकर कुछ समय तक उसे भी सम्पादित किया। यही नहीं सरकार समर्थक समाचार पत्र पायोनियर के समकक्ष 1909 में दैनिक ‘लीडर’ अखबार निकालकर लोकमत निर्माण का महान कार्य सम्पन्न किया तथा दूसरे वर्ष मर्यादा पत्रिका भी प्रकाशित की। इसके बाद उन्होंने 1924 ई0 में दिल्लीआकर हिन्दुस्तान टाइम्स को सुव्यवस्थित किया तथा सनातन धर्म को गति प्रदान करने हेतु लाहौर से विश्वबन्द्य जैसे अग्रणी पत्र को प्रकाशित करवाया !असहयोग आंदोलन के चतुर्सूत्री कार्यक्रम में शिक्षा संस्थाओं के बहिष्कार का मालवीयजी ने खुलकर विरोध किया जिसके कारण उनके व्यक्तित्व के प्रभाव से हिन्दू विश्वविद्यालय पर उसका अधिक प्रभाव नहीं पड़ा। 1921 ई0 में कांग्रेस के नेताओं तथा स्वयंसेवकों से जेल भर जाने पर किंकर्तव्यविमूढ़ वाइसराय लॉर्ड रीडिंग को प्रान्तों में स्वशासन देकर गान्धीजी से सन्धि कर लेने को मालवीयजी ने भी सहमत कर लिया था परन्तु 4 फ़रवरी 1922 के चौरीचौरा काण्ड ने इतिहास को पलट दिया। गान्धीजी ने बारदौली की कार्यकारिणी में बिना किसी से परामर्श किये सत्याग्रह को अचानक रोक दिया। इससे कांग्रेस जनों में असन्तोष फैल गया और यह खुसुरपुसुर होने लगी कि बड़ा भाई के कहने में आकर गान्धीजी ने यह भयंकर भूल की है। गान्धीजी स्वयं भी पाँच साल के लिये जेल भेज दिये गये। इसके परिणामस्वरूप चिलचिलाती धूप में इकसठ वर्ष के बूढ़े मालवीय ने पेशावर से डिब्रूगढ़ तक तूफानी दौरा करके राष्ट्रीय चेतना को जीवित रखा। मालवीय जी देश से निरक्षरता को दूर करने और शिक्षा के व्यापक प्रसार को देश की उन्नति के लिए आधारशिला मानते थे.अतः उन्होंने शिक्षा पर विशेष बल दिया.वे स्त्री शिक्षा के प्रबल समर्थक थे.शिक्षा सम्बन्धी अपनी धारणा को साकार करने के लिए उन्होंने एक महान विश्वविद्यालय की स्थापना की योजना बनायीं.इसके लिए उन्होंने देशवासियों से धन माँगा. अपनी सामर्थ्य के अनुसार लोगो ने इस पुण्य कार्य में सहयोग किया.तत्कालीन काशी नरेश ने विश्वविद्यालय के लिए पर्याप्त धन और भूमि दी.अपनी ईमानदारी,लगन व परीश्रम के कारण उन्हें इस कार्य में सफलता मिली.सन 1918 में काशी हिन्दू विश्वविद्यालय (बनारस हिन्दू यूनिवर्सिटी) की स्थापना की गई. यह विश्वविद्यालय आज भी भारत के विश्वविद्यालयों में प्रमुख है.जितने विषयो के अध्ययन की यहाँ व्यवस्था है उतनी शायद ही कहीं हो. वे राष्ट्रभाषा हिन्दी के प्रबल समर्थक थे.उनका मानना था की बिना हिन्दी ज्ञान के देश की उन्नति संभव नहीं है. भारत सरकार ने 24 दिसम्बर 2014 को उन्हें भारत रत्न से सम्मानित किया. काशी हिन्दू विश्वविद्यालय की स्थापना के कुछ ही समय की बात है, यदा-कदा अध्यापक उद्दंड छात्रों को उनकी गलतियों के लिए आर्थिक दंड दे दिया करते थे, मगर छात्र उस दंड को माफ कराने मालवीय जी के पास पहुंच जाते और महामना उसे माफ भी कर देते थे। यह बात शिक्षकों को अच्छी नहीं लगी और वह मालवीय जी के पास जाकर बोले, ‘महामना, आप उद्दंड छात्रों का आर्थिक दंड माफ कर उनका मनोबल बढ़ा रहे हैं। इससे उनमें अनुशासनहीनता बढ़ती है। इससे बुराई को बढ़ावा मिलता है। आप अनुशासन बनाए रखने के लिए उनके दंड माफ न करें।’ मालवीय जी ने शिक्षकों की बातें ध्यान से सुनीं फिर बोले, ‘मित्रो, जब मैं प्रथम वर्ष का छात्र था तो एक दिन गंदे कपड़े पहनने के कारण मुझ पर छह पैसे का अर्थ दंड लगाया गया था। आप सोचिए, उन दिनों मुझ जैसे छात्रों के पास दो पैसे साबुन के लिए नहीं होते थे तो दंड देने के लिए छह पैसे कहां से लाता। इस दंड की पूर्ति किस प्रकार की, यह याद करते हुए मेरे हाथ स्वत: छात्रों के प्रार्थना पत्र पर क्षमा लिख देते हैं।’ शिक्षक निरुत्तर हो गए। मालवीय जी ने शिक्षकों की बातें ध्यान से सुनीं फिर बोले, ‘मित्रो, जब मैं प्रथम वर्ष का छात्र था तो एक दिन गंदे कपड़े पहनने के कारण मुझ पर छह पैसे का अर्थ दंड लगाया गया था। आप सोचिए, उन दिनों मुझ जैसे छात्रों के पास दो पैसे साबुन के लिए नहीं होते थे तो दंड देने के लिए छह पैसे कहां से लाता। इस दंड की पूर्ति किस प्रकार की, यह याद करते हुए मेरे हाथ स्वत: छात्रों के प्रार्थना पत्र पर क्षमा लिख देते हैं।’ शिक्षक निरुत्तर हो गए। हिन्दी प्रदेश की भाषा बन गई थी परन्तु मालवीयजी उसे राष्ट्र की भाषा के पद पर प्रतिष्ठित करने के लिए चिन्तित थे। उन्होंने हिन्दी साहित्य सम्मेलन का प्रारूप प्रस्तुत किया तथा सन् १९१० में काशी में आयोजित प्रथम हिन्दी साहित्य सम्मेलन की अध्यक्षता की। सम्मेलन में देश भर से ३०० प्रतिनिधि तथा विभिन्न प्रमुख समाचार पत्रों के ४२ सम्पादक सम्मिलित हुए। इस अवसर पर अदालतों में नागरी लिपि का प्रचार, उच्च कक्षाओं में हिन्दी का शिक्षण, हिन्दी पाठ्यपुस्तकों का प्रणयन, राष्ट्रभाषा के रूप में हिन्दी और नागरी का प्रयोग तथा स्टाम्पों पर हिन्दी का प्रयोग आदि प्रस्ताव पारित किए गये। सम्मेलन में मालवीयजी ने अत्यन्त मार्मिक अध्यक्षीय भाषण दिया। एक कोष की स्थापना की गयी जिसमें तुरन्त ३५२४ रुपये संग्रहीत हो गये। स्वयं मालवीयजी ने अपने अंशदान के रूप में ११ हजार रुपये देने की घोषणा की। सभा पर ६ हजार रुपये का ऋण था उसे अदा करने का आश्वासन मिला। पं. श्यामबिहारी मिश्र ने मालवीयजी के संबन्ध में कहा था “हिन्दी की जो उन्नति आज दिखाई देती है उसमें मालवीयजी का उद्योग मुख्य कहना चाहिए। इस अवसर पर हमें दूसरा सभापति इनसे बढ़कर नहीं मिल सकता था। अपने अध्यक्षीय भाषण में मालवीयजी ने हिन्दी अपनाने, सरल हिन्दी का प्रयोग करने तथा अन्य भाषाओं के प्रचलित शब्द ग्रहण करने की अपील की। उनका कहना था कि संस्कृत की पुत्री होने के कारण हिन्दी प्राचीनतम भाषा है।महामना मदन मोहन मालवीय शिक्षा को राष्ट्र की उन्नति का अमोघ अस्त्र मानते थे। अतः उन्होंने शैक्षिक संस्थाओं की स्थापना अपने जीवन का महत्वपूर्ण लक्ष्य बनाया। इसके लिए वे किसी से भी दान लेने में संकोच नही करते थे, पर दान के धन को शैक्षिक संस्थाओं की स्थापना और विकास पर ही लगाते थे, व्यक्तिगत कार्यों हेतु नहीं।
>>> पंडित मदन मोहन मालवीय के शैक्षिक विचार <<<
पंडित मदन मोहन मालवीय 25 दिसम्बर, 1861 को तीर्थराज प्रयाग में जन्म हुआ। पंडित मदन मोहन मालवीय के पिता प्रेमधर जी संस्कृत के बड़े विद्वान थे। धर्म के प्रति उनकी बड़ी गहरी निष्ठा थी। पितामह की तरह पितामही भी धर्मनिष्ठ और शील सम्पन्न थी। मदन मोहन मालवीय के पिता पं0 ब्रजनाथ पं0 प्रेमधर की ही तरह धर्मनिष्ठ,जव संस्कृत के विद्वान तथा राधाकृष्ण के अनन्य भक्त थे।पंडित मदन मोहन मालवीय को पाँच वर्ष की आयु में विद्यारंभ कराया गया। उन्हें प्राच्य और पाश्चात्य दोनों ही तरह की शिक्षाओं का गहराई से अनुशीलन करने का अवसर मिला। पहाड़ा एवं सामान्य गणित पढ़ने वे एक महाजनी पाठशाला में जाते थे। उसके उपरांत उन्होंने धर्मज्ञानोपदेश पाठशाला में संस्कृत, धर्म और शारीरिक शिक्षा पाई। फिर वे धर्म प्रविर्द्धनी पाठशाला के विद्याथ्री बने। इस प्रकार उन्हें परम्परागत भारतीय ज्ञान, धर्म, दर्शन का अच्छा अभ्यास हो गया।सन् 1868 में प्रयाग में गर्वनमेण्ट हाईस्कूल खुला। पंडित मदन मोहन मालवीय ने इसमें प्रवेश लिया। यहाँ बड़े परिश्रम से अंग्रेजी की शिक्षा ग्रहण की। साथ ही साथ वे संस्कृत का भी ज्ञान प्राप्त करते रहे। एन्ट्रेस उत्तीर्ण करने के उपरांत मदन मोहन म्योर सेन्ट्रल कॉलेज में पढ़ने लगे। मासिक छात्रवृत्ति मिल जाने से उनका आर्थिक संकट कुछ हद तक कम हुआ। 1881 में एफ0ए0 की परीक्षा उत्तीर्ण की और 1884 में कलकत्ता विश्वविद्यालय से बी0ए0 की परीक्षा विशेष योग्यता के साथ उत्तीर्ण की। पारिवारिक जिम्मेदारियों के कारण वे एम0ए0 की परीक्षा में नहीं बैठ सके। उन्होंने सरकारी उच्च विद्यालय में पहले 40 रूपये और बाद में 60 रू0 मासिक वेतन पर अध्यापक पद स्वीकार कर लिया।समाज सेवा के प्रति पंडित मदन मोहन मालवीय की लगन छात्र जीवन से ही दिखती है। समाज सेवा हेतु छात्र जीवन में ही उन्होंने ‘साहित्य सभा’ एवं ‘हिन्दू समाज’ नामक संस्थाओं की स्थापना की थी। सरकारी नौकरी महामना को बाँधे नही रख सकी। तीन वर्षों तक सरकारी नौकरी में रहने के बाद उन्होंने नौकरी छोड़ दी। 1886 में कांग्रेस के द्वितीय अधिवेशन में महामना के भाषण ने राष्ट्रीय नेताओं को काफी प्रभावित किया। अब वे कालाकाँकर आकर दैनिक समाचार पत्र ‘हिन्दुस्तान’ का सम्पादन करने लगे। 1887 से 1889 तक इस कार्य को सफलता पूर्वक किया। महामना की बहुमुखी प्रतिभा इसी तथ्य से स्पष्ट है कि समाचार पत्र के सम्पादन के साथ-साथ उन्होंने वकालत की पढ़ाई जारी रखी। 1891 में वकालत की परीक्षा उत्तीर्ण कर आप इलाहाबाद उच्च न्यायालय में वकालत करने लगे। 12 नवम्बर, 1946 सूर्य के अवसान बेला में इस महामानव का देहावसान हो गया !
>>> पंडित मदन मोहन मालवीय के शैक्षिक विचार <<<
महामना सही अर्थों में शिक्षा को सर्वाधिक प्रभावशाली शक्ति मानते थे। वे भारत के सांस्कृतिक-सामाजिक और राजनीतिक-आर्थिक पराभव का कारण भारतीयों की निरक्षरता एवं अशिक्षा को मानते थे। उनका कहना था कि ‘‘यदि देश का अभ्युदय चाहते हो तो सब प्रकार से यत्न करो कि देश में कोई बालक या बालिका निरक्षर न रहे।’’ उनके अनुसार देश की दुर्दशा को समाप्त करने का एकमात्र साधन साक्षरता एवं शिक्षा है। अत: उन्होंने अपने जीवन के अधिक महत्वपूर्ण भाग को शिक्षा में लगाया।महामना शिक्षा को मानव-जीवन के सर्वागींण विकास का साधन मानते थे। उनकी दृष्टि में शिक्षा वह है जो विद्याथ्री की शारीरिक, बौद्धिक तथा भावात्मक शक्तियों को परिपुष्ट और विकसित कर सके तथा भविष्य में किसी व्यवसाय द्वारा ईमानदारी से जीवन-निर्वाह करने के योग्य बना सके। महामना शिक्षा के द्वारा युवा वर्ग को कलात्मक और सौन्दर्यपूर्ण जीवन के लिए तैयार करना चाहते थे। वे शिक्षा को राष्ट्रप्रेम जागृत करने वाली शक्ति बनाना चाहते थे ताकि नई पीढ़ी निस्वार्थ भाव से समाज एवं राष्ट्र की सेवा कर सके। पंडित मदन मोहन मालवीय शिक्षा को मानव मात्र का अधिकार मानते थे तथा इसका समुचित प्रबन्ध करना राज्य का कर्त्तव्य मानते थे। वे शिक्षा की एक ऐसी राष्ट्रीय प्रणाली विकसित होते देखना चाहते थे जिसमें प्रारम्भिक और माध्यमिक विद्यालयों में शिक्षा नि:शुल्क हो। वे कहते थे ‘‘सब स्तर पर शिक्षा का ऐसा प्रबन्ध हो कि कोई बच्चा निर्धन होने के कारण उससे वंचित न रह पाये।’’ उनका मानना था कि शिक्षा के व्यापक विस्तार से सामाजिक कुरीतियों और आर्थिक विषमताओं को दूर किया जा सकता है।महामना पुरूषों की शिक्षा से अधिक महत्वपूर्ण स्त्रियों की शिक्षा को मानते थे। इसका कारण यह है कि वे ही देश की भावी संतान की मातांए हैं। उनकी इच्छा थी कि राष्ट्रीय कार्यक्रम के आधार पर स्त्रियों को इस तरह शिक्षित किया जाये कि उनमें प्राचीन तथा आधुनिक संस्कृतियों के बेहतर पक्षों का समन्वय हो। वे नारियों को इतना सबल बनाना चाहते थे कि वे भारत के पुनर्निमाण में वे महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकें !
>>> मदन मोहन मालवीय को महामना की उपाधि किसने दी <<<
मदन मोहन मालवीय को महामना की उपाधि महात्मा गांधी ( बापू ) ने दी थी।
>>> शिक्षा का उद्देश्य <<<
महामना को शिक्षा में वह शक्ति दिखती थी जो व्यक्ति, समाज और राष्ट्र तीनों के विकास के लिए आवश्यक है। इसके लिए उन्होंने शिक्षा के व्यापक उद्देश्य निर्धारित किए।1. व्यक्तित्व का सर्वागींण विकास- महामना शिक्षा के द्वारा सम्पूर्ण व्यक्तित्व का विकास चाहते थे। केवल बौद्धिक विकास को वे अर्थहीन मानते थे। विद्याथ्री के बौद्धिक, शारीरिक, मानसिक एवं भावात्मक पक्षों के समन्वित विकास को महामना ने शिक्षा का परम लक्ष्य माना।2. शारीरिक विकास- महामना का मानना था कि दुर्बल शरीर वाले व्यक्ति सबल राष्ट्र का निर्माण नहीं कर सकते। उनके अनुसार शिक्षा व्यवस्था का एक महत्वपूर्ण उद्देश्य शारीरिक विकास है। ‘मेरा बचपन’ नामक लेख में महामना ने लिखा ‘‘स्वास्थ्य के तीन खम्भे हैं- आहार, शयन और ब्रह्मचर्य। तीनों की युक्तिपूर्वक सेवन करने से स्वास्थ्य अच्छा रहेगा।’’ वे चाहते थे कि प्रत्येक विद्याथ्री पच्चीस वर्ष तक ब्रह्मचर्य का पालन करे तथा प्रतिदिन नियम से व्यायाम करे। उनका मानना था कि ब्रह्मचर्य ही व्यक्ति को आत्मबल देता है, जिसके द्वारा व्यक्ति संसार में सब कष्टों और कठिनाईयों का साहस के साथ सामना कर सकता है।3. चरित्र गठन हेतु शिक्षा- महामना की दृष्टि में चरित्र गठन शिक्षा का सर्वप्रमुख उद्देश्य है। विनम्रता विहीन ज्ञान, उनकी दृष्टि में निरर्थक है। वे व्यक्ति के उत्कर्ष और राष्ट्र की उन्नति के लिए उज्ज्वल चरित्र को बौद्धिक तथा व्यवसायिक विकास से कहीं अधिक महत्वपूर्ण मानते थे। उनके अनुसार सदाचार मनुष्य का परमधर्म है, उसका पालन मनुष्य का पुनीत कर्तव्य तथा उसकी वृद्धि उसका पुरूषार्थ है।4. राष्ट्रीयता की भावना का विकास- महामना मालवीय ने शिक्षा के एक महत्वपूर्ण उद्देश्य राष्ट्रभक्ति की भावना का विकास बताया। उनके अनुसार शिक्षित व्यक्ति को राष्ट्र के प्रति नि:स्वार्थ भक्ति भाव रखना चाहिए। उन्होंने कहा ‘‘यह भारत हमारा देश है। सभी बातों के विचार से इसके समान संसार में कोई दूसरा देश नहीं है। हमको इस बात के लिए कृतज्ञ और गौरवान्वित होना चाहिए कि उस कृपालु परमेश्वर ने हमें इस पवित्र देश में पैदा किया।’’ महामना ने भारतीय राष्ट्रीयता का आधार ‘हिन्दुत्व’ माना। अत: वे हिन्दुत्व पर आधारित राष्ट्रभक्ति की शिक्षा का उद्देश्य बनाना चाहते थे। यहाँ यह तथ्य उल्लेखनीय है कि महामना की ‘हिन्दू’ की धारणा बड़ी व्यापक थी। भारत के सभी निवासियों को वे हिन्दू मानते थे। वस्तुत: हिन्दुत्व को वे एक श्रेष्ठ जीवन शैली के रूप में देखते थे। वे हिन्दुत्व पर आधारित भारतीय संस्कृति का हर तरह से विकास करना चाहते थे।5. सेवा भावना का विकास- महामना की दृष्टि में सेवा से बड़ा कोई धर्म नहीं है। वे सभी जीवों में ईश्वर का अंश देखते थे। उनका मानना था कि पीड़ित, वंचित, दुखी व्यक्ति की सेवा वस्तुत: ब्रह्म प्राप्ति का सबसे उपयुक्त साधन है। वे विद्याथ्री में सेवा एवं सदाचार का भाव प्रारम्भ से ही विकसित करना चाहते थे। इस प्रकार महामना मदन मोहन मालवीय ने शिक्षा का अत्यन्त ही विस्तृत उद्देश्य रखा। वे शिक्षा द्वारा राष्ट्रभक्त, सदाचारी, चरित्रवान, स्वावलम्बी भारतीय नागरिक का निर्माण करना चाहते थे।
>>> पाठ्यक्रम <<<
पाठ्यक्रम का निर्माण शैक्षिक आदर्शों और उद्देश्यों की पूर्ति के लिए किया जाता है। पाठ्यक्रम से ही इस तथ्य का निर्धारण होता है कि किस स्तर पर किस चीज की शिक्षा देनी है। पाठ्यक्रम कोई निर्धारित वस्तु नही है जो हर समय हर स्थान पर एक जैसी रहे। हर समाज और देश अपनी आवश्यकतानुसार पाठ्यक्रम निर्धारित करता है। अर्थात् देश, काल और परिस्थिति के अनुसार पाठ्यक्रम का निर्माण होता है और नई परिस्थितियों में पाठ्यक्रम में संशोधन और परिमार्जन होता रहता है।महामना ने यह महसूस किया कि संकुचित पाठ्यक्रम द्वारा राष्ट्रीय उद्देश्यों को प्राप्त नहीं किया जा सकता है। अत: उन्होंने बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय में अत्यन्त ही लचीले पाठ्यक्रम को अपनाया। महामना ने अपने विश्वविद्यालय में प्राचीन से लेकर अर्वाचीन- सभी उपयोगी विषयों को स्थान देने का प्रयास किया। महामना देश के विकास हेतु विज्ञान की शिक्षा आवश्यक मानते थे, अत: उन्होंने आधुनिक विज्ञान की शिक्षा पर जोर दिया।व्यक्ति आत्मनिर्भर बने अत: बुनाई, रंगाई, धुलाई, धातुकर्म, काष्ठ-कला, मीनाकारी आदि की शिक्षा पर मालवीय ने बल दिया। भारत एक कृषि प्रधान देश है अत: महामना ने इस ओर विशेष ध्यान देते हुए कृषि के आधुनिकतम उपकरणों के प्रयोग की शिक्षा की उच्चतम व्यवस्था की। वे चाहते थे कि माध् यमिक स्तर पर कृषि सम्बन्धी शिक्षा दी जाये तथा उच्च स्तर पर भी इस विषय में अनुसन्धान किये जाये।इसके साथ-साथ महामना ने चिकित्सा विज्ञान, आयुर्वेद, नक्षत्र विज्ञान, भाषा आदि सभी की शिक्षा पर जोर दिया जिससे विद्याथ्री अपनी रूचि के अनुसार शिक्षा प्राप्त कर सके। महामना ने वस्तुत: बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय को प्राचीन एवं नवीन ज्ञान का संगम स्थल बना दिया। प्राचीन भारतीय आयुर्वेद के साथ आधुनिक शल्यशास्त्र का मेल, आयुर्वेदिक औषधियों का वैज्ञानिक परीक्षण तथा उन पर अनुसन्धान, विभिन्न विषयों पर प्राच्य और पाश्चात्य ज्ञान का तुलनात्मक और समन्वयात्मक अध्ययन, प्राचीन भारतीय संस्कृति, दर्शनशास्त्र, साहित्य और इतिहास के गम्भीर अध्ययन-अध्यापन, वेद-वेदांग तथा संस्कृत साहित्य की शिक्षा के अतिरिक्त आधुनिक ज्ञान-विज्ञान, धातु विज्ञान, खनन कार्य, इंजीनियरिंग तथा कृषि विज्ञान का अध्ययन इसकी विशेषता थी।पंडित मदन मोहन मालवीय चाहते थे कि विद्यालय में संगीत, काव्य, नाट्यकला, चित्रकला, मूर्तिकला, वास्तुकला आदि ललितकलाओं की शिक्षा का प्रबन्ध हो। उनके विचार में कला विहीन जीवन शुष्क और नीरस होता है, जबकि ललितकलाओं का ज्ञान उनको परखने की क्षमता तथा शुद्ध भावनाओं के साथ उनके प्रति अभिरूचि और उनका सम्यक अभ्यास जीवन को सरस और आनन्दमय बनाता है।महामना के अनुसार धार्मिक शिक्षा ही चरित्र निर्माण का आधार है। अत: वे शिक्षा में धर्म को उचित स्थान देना चाहते थे। पर धर्म का उनका संप्रत्यय अत्यन्त ही उदार था। वे धार्मिक असहिष्णुता के विरूद्ध थे। जिस धर्म की शिक्षा वे देना चाहते थे उसके संदर्भ में वे कहते हैं ‘‘धर्म यह है कि प्राणी को प्राणी के साथ सहानुभूति हो, एक-दूसरे को अच्छी अवस्था में रखकर प्रसन्न हों और गिरी हुई अवस्था में सहायता दें।’’अध्यापकों एवं छात्रों के कर्तव्य वे विश्वविद्यालय के माध्यम से काशी को सरस्वती की अमरावती बना देने का पावन उद्देश्य रखते थे !
>>> इस उद्देश्य की प्राप्ति के लिए उन्होंने अध्यापकों के कर्तव्य बताये<<<
1-धर्म और शास्त्र का पालन करेंगे।2-सदाचारी रहेंगे 3-देश सेवा के कार्यों में रत रहेंगे। 4-विद्याथ्री के सर्वांगिण विकास हेतु हर संभव प्रयास करेंगे। 5-छात्रों को कार्यों हेतु निर्देश दिये गये-6-व्यायाम करके शरीर को बलशाली बनायें।7-पहले स्वास्थ्य सुधारें फिर विद्या पढ़ें। 8-शाम को खेलें, मैदान में विचरें। 9-जल्दी भोजन करें और नियम से नित्य अध्ययन करें।10-धार्मिक उत्सवों, एकादशी कथा तथा गीता प्रवचनों आदि में उपस्थित रहें। 11-अपनी रक्षा आप करें। 12-समय के पाबन्द बनें और इसे नष्ट न करें। 13-महामना अध्यापकों में उच्च चरित्र देखना चाहते थे ताकि छात्र उनसे प्रेरणा ग्रहण कर स्वंय चरित्रवान, सदाचारी और समाजसेवी बन सके। इसी उद्देश्य से विश्वविद्यालय को आवासीय बनाया गया।
>>>उनके गुरू <<<
वे श्रीमद्भागवत की कथा सुनाकर अपनी आजीविका अर्जित करते थे। पाँच वर्ष की आयु में उन्हें उनके माँ-बाप ने संस्कृत भाषा में प्रारम्भिक शिक्षा लेने हेतु पण्डित हरदेव धर्म ज्ञानोपदेश पाठशाला में भर्ती करा दिया जहाँ से उन्होंने प्राइमरी परीक्षा उत्तीर्ण की।वह मास्टर त्रिलोक सिंह को बहुत प्रिय था। इस कारण मास्टर त्रिलोक सिंह ने उसे पूरे स्कूल का मॉनिटर बना कर रखा था। उन्होंने मोहन को कमजोर बच्चों को दंड देने का अधिकार भी दे दिया था। मोहन के अनेक गुणों के कारण मास्टर त्रिलोक सिंह ने यह घोषणा कर दी थी कि मोहन एक दिन बड़ा आदमी बनेगा और उनके स्कूल का नाम भी रोशन करेगा। नाम -महामना मदन मोहन मालवीय जन्म- 25 दिसंबर 1861स्थान -प्रयाग ब्रिटिश भारत पिता का नाम – पं० ब्रजनाथपत्नी का नाम-कुंदन देवीमाता का नाम -मूनादेवीधर्म- हिंदू मृत्यु -12 नवंबर 1946 (बनारस में )आयु- 5 वर्ष गुरु -त्रिलोक सिंह मुख्य नारा- ‘सत्यमेव जयते’ ! P. I.