राजा चंद्रगुप्त विक्रमादित्य का जीवन परिचय <<<
जैसे यूरोप में संत ईसा मसीह के जन्म से समय की गणना होती है उसी प्रकार हमारे देश में समय की गणनाथ चक्रवर्ती सम्राट चंद्रगुप्त विक्रमादित्य के समय से की जाती है ‘ विक्रमादित्य का नाम विक्रम सेन था। विक्रम वेताल और सिंहासन बत्तीसी की कहानियां महान सम्राट विक्रमादित्य से ही जुड़ी हुई है।
ये हमारे देश के एक अत्यंत महान पुरुष थे आज से 2068 वर्ष पूर्व मध्य एशिया से आने वाले शंको ने हमारे देश पर आक्रमण करके उसे अपने अधीन कर लिया था । इन शंको ने हमारे देश में नाना प्रकार के अत्याचार किए धर्म स्थलों का विध्वंश किया और यहां की संपदा को विनाश किया उनके अत्याचार से प्रजा त्राही – त्राहि कर उठी तब चंद्रगुप्त विक्रमादित्य ने प्रजा को संगठित कर इंसान को को पराजित किया और भारत माता को विदेशी आक्रमण कर्ताओं के चंगुल से मुक्त कराकर भारत में एक सुदृढ़ समराज्य की नींव डाली यह बड़े पराक्रमी लोकप्रिय तथा न्याय प्रिय सम्राट थे इनके शासनकाल में हमारे देश ने बहुमुखी प्रगति की ।’
राजा विक्रमादित्य भारत देश के महान शासकों में से एक थे। इनके पराक्रम के किस्से आज भी सुनाए जाते हैं जिन्हें सुनकर लोगों को हौसला बुलंद होता है। बहुत से इतिहासकार मानते हैं कि वह उज्जैन के एक महान शासकों में से एक रह चुके हैं। इनकी वीरता की वजह से इन्हें शाकरी की उपाधि से भी सन्मानित किया गया।
हालाँकि कुछ विद्वानों का मानना है कि महाराजा विक्रमादित्य केवल एक कल्पना हैं। अगर आप इनके किस्सों को सुनेंगे तो आपका मन एक नए हौसले से भरपूर हो जाएगा। विभिन्न इतिहासकारों की इनको लेकर अलग अलग मान्यताएं हैं। चलिये विस्तृत रूप से आज हम महाराजा विक्रमादित्य के इतिहास की जानकारी प्राप्त करते हैं।
इनकी राजधानी उज्जयिनी में थी जो आजकल उज्जैन के नाम से प्रसिद्ध है । यहां नगर वर्तमान मध्य प्रदेश में इंदौर के निकट है उज्जैन में इनके द्वारा बनाया गया। महाकालेश्वर का मंदिर भारत के महान मंदिरों में से एक है ।
महाराजा विक्रमादित्य की जन्म तारीख को लेकर कोई ठोस सबूत नहीं मिलता। अलग अलग इतिहासकार अलग अलग अटकलें लगाते रहे हैं। लेकिन ऐसा भी माना जाता है कि इनका जन्म जन्म 102 ई पू के नज़दीक ही हुआ था। विक्रम संवत अनुसार अवंतिका (उज्जैन) के महाराजाधिराज राजा विक्रमादित्य आज से (2021 से) 2292 वर्ष पूर्व हुए थे। कलि काल के 3000 वर्ष बीत जाने पर 101 ईसा पूर्व सम्राट विक्रमादित्य का जन्म हुआ। उन्होंने 100 वर्ष तक राज किया।
भारतीय विक्रम संवत के प्रवर्तक सम्राट चंद्रगुप्त आदित्य को विक्रम संवत कहते हैं । इसकी गणना उस दिन से होती है जिस दिन सम्राट विक्रमादित्य ने संघ को को पराजित कर भारतीय साम्राज्य की पुनः स्थापना की थी। हमारे लोक जीवन में यही संवत प्रचलित है सम्राट चंद्रगुप्त विक्रमादित्य का राज्य अभिषेक ईसा के जन्म से 57 वर्ष पूर्व हुआ था।
तो हम सब समझ सकते हैं कि विक्रम संवत कितना पुराना है।
एक जैनी साधू बताते हैं कि उज्जैन के एक बहुत बड़े शासक थे जिसका नाम गर्दाभिल्ला था। उसने अपनी शक्तियों का गलत इस्तेमाल करके एक सन्यासिनी का अपहरण कर लिया। उस सन्यासिनी का भाई मदद के लिए शक शासक के पास गया।
शक शासक ने उसकी पूरी सहायता की और गर्दाभिल्ला से युद्ध करके शक शासक ने उस सन्यासिनी को रिहा करवा लिया। गर्दाभिल्ला को शक शासकों ने जंगलों के बीच छोड़ दिया जो कि जंगली जानवरों का शिकार हो गया। विक्रमादित्य को उसी गर्दाभिल्ला का पुत्र माना जाता है।
दूसरी तरफ शक शासकों को अपनी शक्ति का अंदाज़ा हो चूका था जिसके कारण वह दूसरे राज्यों में भी अपना शासन बढ़ाने लगे थे। विक्रमादित्य को जब अपने पिता के साथ हुए दुर्व्यवहार की घटना के बारे में पता चला तो उन्होंने बदला लेने की ठानी। लगभग सन 78 के नज़दीक महाराजा विक्रमादित्य ने शक शासकों को युद्ध में पराजित कर दिया जिससे विक्रमी संवत की शुरुआत हुई।
आगे चलकर यह एक वीर महाराजा बने। ऐसा कहा जाता है कि इनकी पांच पत्नियां थीं जिनके नाम पद्मिनी, चेल्ल, मदनलेखा, चिल्ल्हदेवी और मलयवती थीं। साथ ही साथ इनके दो पुत्र और दो पुत्रियां भी थीं। इनके बारे में ज़्यादा जानकारी हमें भविष्य पुराण और संकद पुराण में मिलती है। अरब के प्राचीन साहित्य में भी आप इनके बारे में जानकारी टटोल सकते हैं।
महाराजा विक्रमादित्य के नव रत्न <<<
प्राचीन समय में नौ रत्नों को रखने की परंपरा थी जिसे अकबर द्वारा भी अपनाया गया था। महाराजा विक्रमादित्य के नौ रत्न इस प्रकार थे:-
बेताल भट्ट <<<
बेताल भट्ट महाराजा विक्रमादित्य के प्रमुख रत्नों में से एक थे। बेताल भट्ट का अर्थ है कि भूत पिशाच और साधना में लीन रहने वाला व्यक्ति। बेताल भट्ट महाराजा विक्रमादित्य के साहसिक पराक्रमों और उज्जैन के श्मशान से अच्छी तरह से परिचित थे। तांत्रिक विद्या के ज्ञानी विक्रमादित्य के दरबार के चतुर्थ नवरत्न थे |
कालिदास <<<
कालिदास अपने समय के एक महाकवि और विक्रमादित्य के 9 रत्नों में से एक थे। कविताओं के साथ इन्होने बहुत सारे नाटक भी लिखे हैं। आज भी लोग इनके द्वारा लिखी कविताओं को चाव के साथ पढ़ते हैं। साहित्य के क्षेत्र में इनका बहुत बड़ा योगदान रहा है। महाकवि विक्रमादित्य के दरबार के नवम् नवरत्न थे |
शंकु <<<
शंकु के बारे में ज़्यादा जानकारी उपलब्ध नहीं है। हालाँकि बहुत सारे विद्वान् इन्हें ज्योतिषी मानते हैं। ज्योतिष विद्या से परिपूर्ण विक्रमादित्य के दरबार के तृतीय नवरत्न थे |
अमरसिंह <<<
अमरसिंह एक महान विद्वान थे जो कि राजा सचिव भी थे। संस्कृत का सर्वपर्थम कोष अमर सिंह द्वारा ही रचा गया है जो कि अमरकोश के नाम से प्रसिद्ध है। अमरकोश में हमें कालिदास के नाम का उल्लेख भी देखने को मिलता है। अमरकोश में १० हज़ार से भी ज़्यादा शब्द हैं। कौशकार से सम्बंधित कार्य से परिपूर्ण विक्रमादित्य के दरबार के सप्तम नवरत्न थे |
वररुचि <<<
यह भी विक्रमादित्य के प्रमुख रत्नों में से एक थे। जब इनकी आयु ५ वर्ष थी तब ही इनके पिता की मृत्यु हो गयी थी। शुरू से ही यह तेज़ बुद्धि वाले वयक्ति थे। यह जिस भी बात को सुन लेते थे उसे वैसे का वैसा ही दोहरा देते थे।
एक बार इनके यहां एक विद्वान आये और उन्होंने प्रातिशाख्य का पाठ किया। बाद में इन्होने वैसे का वैसा ही दोहरा दिया जिससे विद्वान इनसे बड़े प्रभावित हुए और इन्हें पाटलिपुत्र ले गए। वहां पर ही इन्होने अपनी शिक्षा प्राप्त की।
क्षपणक <<<
जैन साधुओं के लिए क्षपणक शब्द का उपयोग किया जाता था। मुद्राक्षस में भी क्षपणक की स्थिति का ब्यान किया गया है।विद्वान, नीतिज्ञ से परिपूर्ण विक्रमादित्य के दरबार के द्वितीय नवरत्न थे |
धन्वंतरि <<<
धन्वंतरि एक अच्छे चिकित्स्क माने जाते थे। प्राचीन इतिहास में दो धन्वंतरि का उल्लेख मिलता है जिस में से एक वाराणसी के क्षत्रिय राजा थे और दूसरे वैद्य परिवार के धन्वंतरि। विक्रम युग के धन्वंतरि एक अन्य व्यक्ति थे।आयुर्वेद के ज्ञानी विक्रमादित्य के दरबार के प्रथम नवरत्न थे |
वरामिहिर <<<
वरामिहिर ज्योतिष विद्या में रूचि रखते थे। इन्होने 3 महत्वपूर्ण पुस्तकें लिखी हैं जिनके नाम Panchasiddhantika, Brihat Samhita और Brihat Jataka हैं। ज्योतिषी विषय में इन्होने और भी पुस्तकों की रचना की है। लगभग वर्ष 587 में इनकी मृत्यु हुई थी। खगोल वैज्ञानिक विक्रमादित्य के दरबार के अष्टम नवरत्न थे |
घटकपर्रर <<<
घटकपर्रर को प्रयाग प्रशस्ति के लिए जाना जाता है। इन्होने अपना बुढ़ापा चन्द्रगुप्त के दरबार में बिताया था। यह भी राजा विक्रमादित्य के आवश्यक रत्न थे। कवि, अपनी कविताओ से मंत्रमुग्ध करने वाले विक्रमादित्य के दरबार के पंचम नवरत्न थे |
राजा विक्रमादित्य की गौरव कहानियां <<<
बृहत्कथा <<<
बृहत्कथा की रचना लगभग दसवीं से बारवीं सदी के दौरान की गयी थी। इसमें राजा विक्रमादित्य के कई किस्से शामिल हैं। प्रथम में इसमें विक्रमादित्य और परिष्ठाना का ज़िक्र किया गया है। इस ग्रन्थ में राजा विक्रमादित्य की राजधानी उज्जैन की जगह पाटलिपुत्र बताई गयी है।
एक कथा के अनुसार विक्रमादित्य बहुत ही न्याय पसंद व्यक्ति थे। इस न्यायप्रियता को देखते हुए इंद्रदेव ने अपनी न्याय प्रणाली के लिए राय लेने के लिए राजा विक्रमादित्य को स्वर्ग में बुलाया। राजा इंद्र ने उन्हें सभा में भेजा जहाँ पर नृत्य प्रतियोगिता हो रही थी।
इनमें दो अप्सराएं थीं जिनमें से एक का नाम रम्भा और दूसरी अप्सरा का नाम उर्वशी था। राजा इंद्र ने विक्रमादित्य से पूछा कि इनमें से कौन बेहतर है? तो विक्रमादित्य को इसका पता लगाने के लिए एक तरकीब सूझी।
विक्रमादित्य ने दोनों अप्सराओं के हाथ में एक एक फूल दे दिया और उसपर एक बिच्छू रख दिया। विक्रमादित्य ने अप्सराओं को नाचने के लिए कहा और साथ ही साथ कहा की नृत्य के दौरान यह फूल ऐसे ही खड़ा रहे।
अब जैसे ही रम्भा ने नृत्य शुरू किया रम्भा को बिच्छू ने काट लिया जिस के कारण उसने फूल फेंक दिया और नाचना बंद कर दिया।
वहीं दूसरी और जब उर्वशी ने नाचना शुरू किया तब फूल खड़ा ही रहा और बिच्छू बिना कुछ किये सो गया। इसपर विक्रमादित्य ने कहा कि उर्वशी ही बेहतर है। राजा विक्रमादित्य की इस बुद्धि को देखकर इंद्र देव बहुत ही आश्चर्यचकित और प्रसन्न हुए। इस बात से खुश होकर इंद्र देव ने विक्रमादित्य को 32 बोलने वाली मूर्तियां भेंट करीं जिनके अपने अपने नाम भी थे।
बेताल पच्चीसी <<<
एक साधु राजा विक्रमादित्य को बिना कोई शब्द कहे एक बेताल जो कि पेड़ पर रहता है को लाने के लिए कहता है। विक्रमादित्य उस बेताल को ढूंढ भी लेते हैं। रास्ते में बेताल विक्रमादित्य को हर बार एक कहानी सुनाता है और कहानी के दौरान एक न्यायपूर्ण सवाल बीच पूछता है।
साथ ही साथ बेताल विक्रमादित्य को श्राप भी देता है कि अगर जानते हुए भी उसने जवाब ना दिया तो उसका सर फट जायेगा। इस तरह ना चाहते हुए भी विक्रमादित्य को बेताल के सवालों का जवाब देना पड़ता है। अंत में एक भी शब्द न बोलने का प्रण टूट जाता है और बेताल वापिस पेड़ पर रहने चला जाता है। इस तरह से उसमें पच्चीस कहानियां मौजूद हैं।
सिंहासन बत्तीसी <<<
इसी प्रकार से सिंहासन बत्तीसी में बत्तीस कहानियां मौजूद हैं जिसमें राजा विक्रमादित्य द्वारा राज्य जीतने की कहानी शामिल है। इसमें राजा विक्रमादित्य अपना राज्य हार जाते हैं जिसके बाद उनकी 32 मूर्तियां जो राजा इंद्र देव ने उन्हें भेंट की थीं उनसे हर राजा भोज में कहानियां सुनाती हैं और एक सवाल पूछती हैं। ऐसे वह राजा भोज को सिंहासन पर बैठने से रोकती हैं।
आखिर तक राजा विक्रमादित्य मूर्तियों द्वारा पूछे गए 32 सवालों के जवाब दे देता है और अपना सिंहासन बचाने में सफल हो जाते हैं।
मृत्यु <<<
ऐसा कहा जाता है कि जब ३१वीं मूर्ति विक्रमादित्य को कथा सुना रही थी तो उसने कहा कि भले ही राजा देवताओं जैसे गुणों वाले हैं लेकिन हैं तो वो एक मानव ही। इसलिए उनकी मृत्यु निश्चित है। राजा की मृत्यु के बाद प्रजा में हाहाकार मच गया।
इसके बाद राजा के सबसे बड़े बेटे को सम्राट घोषित किया गया और बड़ी ही धूमधाम से उसका राजतिलक भी किया गया। लेकिन वह सिंहासन पर बैठ नहीं पा ररहे थे। वह भी खुद हैरान था की वह सिंहासन पर क्यों नहीं बैठ पा रहा है। इसके बाद राजा विक्रमादित्य उसके सपने में आये और उसे देवत्व प्राप्त करने के लिए कहा।
साथ ही कहा की जब वह इस सिंहासन पर बैठने के लायक हो जायेगा तब वह खुद उनके सपने में आएंगे और सिंहासन पर बैठने के लिए कहेंगे। लेकिन वह उसके सपने में आए ही नहीं।
इसके बाद वह उसके सपने में आए और सिंहासन को ज़मीन में दफनाने के लिए कहा और उसे उज्जैन को छोड़ कर अम्बावती को नई राजधानी बनाने के लिए कहा। उन्होंने यह भी कहा जैसे ही पृथ्वी पर इस सिंहासन के लायक कोई होगा तो यह सिंहासन अपने आप बाहर आ जाएगा।
इसके पश्चात उन्होंने अपने पिता की आज्ञा से अगले ही दिन उस सिंहासन को एक बड़े से गड्ढे में दफना दिया और खुद उज्जैन को छोड़ कर अम्बावती पर राज करने लगे।
विक्रमादित्य का सिंहासन और उनकी 32 पुतलियां <<<
साहित्य ग्रंथों में विक्रमादित्य का सिंहासन अत्यधिक प्रसिद्ध है। किंवदंती है कि विक्रमादित्य के पराक्रम, शौर्य, कलामर्मज्ञता तथा दानशीलता से प्रसन्न होकर इंद्र ने यह रत्नजडित स्वर्णिम दिव्य सिंहासन विक्रमादित्य को उपहार में दिया। इसमें 32 पुत्तलिकाएं यानी पुतलियां लगी थीं। यह सिंहासन 32 हाथ लंबा तथा 8 हाथ ऊंचा था। यह भी कहा जाता है कि यह सिंहासन राजा भोज को उज्जयिनी में एक टीले के उत्खनन में प्राप्त हुआ था।
** सिंहासन द्वात्रिंशिका के अनुसार सिंहासन में जडित 32 पुत्तलिकाओं के नाम इस प्रकार हैं-
(1) जया, (2) विजया,
(3) जयंती, (4) अपराजिता,
(5) जयघोषा, (6) मंजूघोषा,
(7) लीलावती, (8) जयावती,
(9) जयसेना, (10) मदनसेना,
(11) मदनमंजरी, (12) श्रृंगारमंजरी,
(13) रतिप्रिया, (14) नरमोहिनी,
(15) भोगनिधि, (16) प्रभावती,
(17) सुप्रभा, (18) चन्द्रमुखी,
(19) अन्नगध्वजा, (20) कुरंगनयना,
(21) लावण्यवती, (22) सौभाग्यमंजरी,
(23) चन्द्रिका, (24) हंसगमना,
(25) विद्युतप्रभा, (26) चन्द्रकांता,
(27) रूपकांता, (28) सुरप्रिया,
(29) अन्नदाप्रभा, (30) देवनंदा,
(31) पद्मावती व (32) पद्मिनी।
उज्जैन के महान सम्राट विक्रमादित्य की 10 रोचक बातें <<<
उज्जैन का प्राचीन नाम अवंतिका है। अवंतिका मालवा क्षेत्र का एक नगर है। मालवा वर्तमान मध्यप्रदेश राज्य का हिस्सा है। अवंतिका की गणना सप्तपुरियों में की जाती है। यहां ज्योतिर्लिंग के साथ ही शक्तिपीठ भी स्थापित है। पुण्य पवित्र नदी क्षिप्रा के तट पर बसी इन नगरी में कई महान राजा हुए हैं उन्हीं में से एक हैं चक्रवर्ती सम्राट विक्रमादित !
- विक्रम संवत अनुसार अवंतिका (उज्जैन) के महाराजाधिराज राजा विक्रमादित्य आज से (2021 से) 2292 वर्ष पूर्व हुए थे। कलि काल के 3000 वर्ष बीत जाने पर 101 ईसा पूर्व सम्राट विक्रमादित्य का जन्म हुआ। उन्होंने 100 वर्ष तक राज किया। -(गीता प्रेस, गोरखपुर भविष्यपुराण, पृष्ठ 245)। कल्हण की ‘राजतरंगिणी’ के अनुसार 14 ई. के आसपास कश्मीर में अंध्र युधिष्ठिर वंश के राजा हिरण्य के नि:संतान मर जाने पर अराजकता फैल गई थी। जिसको देखकर वहां के मंत्रियों की सलाह से उज्जैन के राजा विक्रमादित्य ने मातृगुप्त को कश्मीर का राज्य संभालने के लिए भेजा था। नेपाली राजवंशावली अनुसार नेपाल के राजा अंशुवर्मन के समय (ईसापूर्व पहली शताब्दी) में उज्जैन के राजा विक्रमादित्य के नेपाल आने का उल्लेख मिलता है।
- विक्रमादित्य का नाम विक्रम सेन था। नाबोवाहन के पुत्र राजा गंधर्वसेन भी चक्रवर्ती सम्राट थे। गंधर्वसेन के पुत्र विक्रमादित्य और भर्तृहरी थे। उनके पिता को महेंद्रादित्य भी कहते थे। उनके और भी नाम थे जैसे गर्द भिल्ल, गदर्भवेष। विक्रम की माता का नाम सौम्यदर्शना था जिन्हें वीरमती और मदनरेखा भी कहते थे। उनकी एक बहन थी जिसे मैनावती कहते थे।
- उनकी पांच पत्नियां थी, मलयावती, मदनलेखा, पद्मिनी, चेल्ल और चिल्लमहादेवी। उनकी दो पुत्र विक्रमचरित और विनयपाल और दो पुत्रियां प्रियंगुमंजरी (विद्योत्तमा) और वसुंधरा थीं। गोपीचंद नाम का उनका एक भानजा था। प्रमुख मित्रों में भट्टमात्र का नाम आता है। राज पुरोहित त्रिविक्रम और वसुमित्र थे। मंत्री भट्टि और बहसिंधु थे। सेनापति विक्रमशक्ति और चंद्र थे।
- विक्रामादित्य के दरबार में नवरत्न रहते थे। कहना चाहिए कि नौ रत्न रखने की परंपरा का प्रारंभ उन्होंने ही किया था। उनके अनुसरण करते हुए कृष्णदेवराय और अकबर ने भी नौरत्न रखे थे। सम्राट अशोक के दरबार में भी नौरत्न थे। विक्रमादित्य के नौ रत्नों के नाम है-
- धनवंतरी 2. क्षिपाका
- अमरसिम्हा 4. शंकु
- वेतालभट्ट 6. घटकारपारा
- कालीदासा 8. वराहमिहिर
- वररुचि।
हालांकि यह भी कहा जाता है कि यह नवरत्न चंद्रगुप्त विक्रमादित्य द्वितीय के काल में थे। - कहते हैं कि उन्होंने तिब्बत, चीन, फारस, तुर्क और अरब के कई क्षेत्रों पर शासन किया था। उत्तर में हिमालय से लेकर दक्षिण में सिम्हल (श्रीलंका) तक उनका परचम लहराता था। विक्रमादित्य की अरब विजय का वर्णन अरबी कवि जरहाम किनतोई ने अपनी पुस्तक ‘शायर उर ओकुल’ में किया है। यही कारण है कि उन्हें चक्रवर्ती सम्राट महान विक्रमादित्य कहा जाता है।
- उज्जैन के सम्राट विक्रमादित्य ने ही 57 ईसा पूर्व अपने नाम से विक्रम संवत चलाया था। उन्होंने शकों पर विजय की याद में यह संवत चलाया था। उनके ही नाम से वर्तमान में भारत में विक्रम संवत प्रचलित है। कहा जाता है कि मालवा में विक्रमादित्य के भाई भर्तृहरि का शासन था। भर्तृहरित के शासन काल में शको का आक्रमण बढ़ गया था। भर्तृहरि ने वैराग्य धारण कर जब राज्य त्याग दिया तो विक्रम सेना ने शासन संभाला और उन्होंने ईसा पूर्व 57-58 में सबसे पहले शको को अपने शासन क्षेत्र से बहार खदेड़ दिया। इसी की याद में उन्होंने विक्रम संवत की शुरुआत कर अपने राज्य के विस्तार का आरंभ किया।
इस संवत के प्रवर्तन की पुष्टि ज्योतिर्विदाभरण ग्रंथ से होती है, जो कि 3068 कलि अर्थात 34 ईसा पूर्व में लिखा गया था। इसके अनुसार विक्रमादित्य ने 3044 कलि अर्थात 57 ईसा पूर्व विक्रम संवत चलाया।
- महाकवि कालिदास की पुस्तक ज्योतिर्विदभरण के अनुसार उनके पास 30 मिलियन सैनिकों, 100 मिलियन विभिन्न वाहनों, 25 हजार हाथी और 400 हजार समुद्री जहाजों की एक सेना थी। कहते हैं कि उन्होंने ही विश्व में सर्व प्रथम 1700 मील की विश्व की सबसे लंबी सड़क बनाई थी जिसके चलते विश्व व्यापार सुगम हो चला था।
- बाद के राजाओं में विक्रमादित्य से बहुत कुछ सिखा और उन राजाओं को विक्रमादित्य की उपाधि से नावाजा जाता था जो उनके नक्षे-कदम पर चलते थे। उज्जैन के सम्राट विक्रमादित्य के बाद समुद्रगुप्त के पुत्र चन्द्रगुप्त द्वितीय हुए जिन्हें चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य कहा गया। विक्रमादित्य द्वितीय के बाद 15वीं सदी में सम्राट हेमचंद्र विक्रमादित्य ‘हेमू’ हुए। सम्राट हेमचंद्र विक्रमादित्य के बाद ‘विक्रमादित्य पंचम’ सत्याश्रय के बाद कल्याणी के राजसिंहासन पर आरूढ़ हुए। उन्होंने लगभग 1008 ई. में चालुक्य राज्य की गद्दी को संभाला। राजा भोज के काल में यही विक्रमादित्य थे।
- सम्राट विक्रमादित्य अपने राज्य की जनता के कष्टों और उनके हालचाल जानने के लिए छद्मवेष धारण कर नगर भ्रमण करते थे। राजा विक्रमादित्य अपने राज्य में न्याय व्यवस्था कायम रखने के लिए हर संभव कार्य करते थे। इतिहास में वे सबसे लोकप्रिय और न्यायप्रीय राजाओं में से एक माने गए हैं। महाराजा विक्रमादित्य का सविस्तार वर्णन भविष्य पुराण और स्कंद पुराण में मिलता है।
- सम्राट विक्रमादित्य के जीवन से ही सिंहासन बत्तीसी और विक्रम वेताल नामक कथाएं जुड़ी हुई है। कहते हैं कि अवंतिका नगरी की रक्षा नगर के चारों और स्थित देवियां करती थीं, जो आज भी करती हैं। विक्रमादित्य को माता हरसिद्धि और माता बगलामुखी ने साक्षात दर्शन देकर उन्हें आशीर्वाद दिया था। मान्यता अनुसार उज्जैन के राजा महाकाल है और उन्हीं के अधिन रहकर कोई राजा राज करता था। विक्रमादित्य के जाने के बाद यहां के एकमात्र राजा अब महाकाल ही है। कहते हैं कि अवंतिका क्षेत्र में वही राजा रात रुक सकता है जो कि विक्रमादित्य जैसा न्यायप्रिय हो, अन्यथा उस पर काल मंडराने लगता है।
- तुर्की के इस्ताम्बुल शहर की प्रसिद्ध लायब्रेरी मकतब-ए-सुल्तानिया में एक ऐतिहासिक ग्रंथ है ‘सायर-उल-ओकुल’। उसमें राजा विक्रमादित्य से संबंधित एक शिलालेख का उल्लेख है जिसमें कहा गया है कि ‘…वे लोग भाग्यशाली हैं, जो उस समय जन्मे और राजा विक्रम के राज्य में जीवन व्यतीत किया। वह बहुत ही दयालु, उदार और कर्तव्यनिष्ठ शासक था, जो हरेक व्यक्ति के कल्याण के बारे में सोचता था। …उसने अपने पवित्र धर्म को हमारे बीच फैलाया, अपने देश के सूर्य से भी तेज विद्वानों को इस देश में भेजा ताकि शिक्षा का उजाला फैल सके। इन विद्वानों और ज्ञाताओं ने हमें भगवान की उपस्थिति और सत्य के सही मार्ग के बारे में बताकर एक परोपकार किया है। ये तमाम विद्वान राजा विक्रमादित्य के निर्देश पर अपने धर्म की शिक्षा देने यहां आए…।’
विक्रमादित्य का महासागर <<<
विक्रमादित्य एक उपाधि जिसे भारतीय इतिहास में अनेक राजाओं ने धारण की थी, जिनमें गुप्त सम्राट चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य और सम्राट हेम चन्द्र विक्रमादित्य उल्लेखनीय हैं। देवकथाओं के अनुसार विक्रमादित्य भारत की प्राचीन नगरी उज्जयिनी के राजा थे, जो अपने ज्ञान, वीरता और उदारशीलता के लिए प्रसिद्ध थे। जिनके दरबार में नवरत्न रहते थे। इनमें कालिदास भी थे। कहा जाता है कि विक्रमादित्य बड़े पराक्रमी थे और उन्होंने शकों को परास्त किया था। ईसा पूर्व 58 – 57 में प्रारंभ विक्रम संवत राजा विक्रमादित्य का चलाया हुआ माना जाता है। परंतु इतिहास में ईसा पूर्व प्रथम शताब्दी के उत्तरार्ध में पश्चिमी भारत में शासन करने वाले ऐसे किसी पराक्रमी राजा का उल्लेख नहीं प्राप्त होता जिसने विक्रमादित्य की उपाधि धारण की हो।
राजा विक्रमादित्य नाम, विक्रम यानी “शौर्य” और आदित्य, यानी अदिति के पुत्र के अर्थ सहित संस्कृत का तत्पुरुष है। अदिति अथवा आदित्या के सबसे प्रसिद्ध पुत्रों में से एक हैं देवता सूर्य, अतः विक्रमादित्य का अर्थ है सूर्य, यानी “सूर्य के बराबर वीरता (वाला)”. उन्हें विक्रम या विक्रमार्क भी कहा जाता है (संस्कृत में अर्क का अर्थ सूर्य है)।
विक्रमादित्य का असली नाम- विक्रम सेन था।
उनकी पांच पत्नियां थी – मलयावती, मदनलेखा, पद्मिनी, चेल्ल और चिल्लमहादेवी।
पिता का नाम – राजा गर्दभिलल्ल था