Biography of Swami Vivekanand

आज की इस टॉपिक में हम देखेंगे Biography of Swami Vivekanand. हम आपके लिए Swami Vivekanand जी की जीवनी लेकर आए हैं !

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👉स्वामी विवेकानंद जीवनी 👇

स्वामी विवेकाकनंद का जन्म कलकत्ता के एक परिवार में हुआ था ! बचपन में उनका नाम “नरेन्द्रनाथ दत्त” था ! स्वामी जी का अध्यात्म में अधिक लगवा था और वह क्षअपने गुरु श्री “रामकृष्णा परमहंस” से काफी प्रभावित थे ! अपने गुरु के मृत्युपरांत उन्होंने बड़े पैमाने पर भारतीय महाद्वीपों का दौरा किया और ब्रिटिश गतविधियों का संपूर्ण अध्ययन किया !

कोलकाता के प्रसिद्ध दत्त परिवार में 12 जनवरी 1863 ईस्वी को बालक नरेंद्र जी का जन्म हुआ उनके पिता श्री विश्वनाथ दत्त व माता भुनेश्वरी देवी थी !
बंगाल के प्रसिद्ध समाज सुधारक संत रामकृष्ण परमहंस के सानिध्य से बालक नरेंद्र स्वामी विवेकानंद के नाम से प्रसिद्ध हुए !

स्वामी जी ने भारतीय एवं पाश्चात्य दर्शन का गहन अध्ययन किया, परंतु वे केवल आध्यात्मिक शांति पाकर ही संतुष्ट नहीं हुए मातृभूमि की दुर्दशा देखकर वे अत्यंत दुखी थे ! सारे देश का भ्रमण करने पर उन्हें चारों और गरीबी गंदगी, जड़ता अशिक्षा व निराशा ही देखने को मिली उन्होंने स्पष्ट कहा कि अपनी दरिद्रता और अवनति के लिए हम स्वयं जिम्मेदार हैं !

उन्होंने देश का हालत सुधारने के लिए सभी का आह्वान किया और 1897 ई. में “रामकृष्ण मिशन” की स्थापना की जिसका मुख्य उद्देश्य समाज का सेवा करना था !
मिशन ने बाढ़ अकाल तथा महामारियों समय राहत कार्य किया, अस्पताल तथा स्कूल खुले !

स्वामी विवेकानंद ने देश के बाहर जाकर जो कार्य किया उससे भारतीय धर्म व संस्कृति का सम्मान बढा़ ! उनके जीवनकाल में ही माइग्रेट नोबेल नामक ईसाई कन्या उनकी शिष्या बनकर भारत आई वे आगे चलकर भगिनी निवेदिता के नाम से प्रसिद्ध हुई उस महान देवी ने अपना सारा जीवन भारत के गरीब पिछड़े अशिक्षित लोगों की सेवा में लगाकर उस समय के अनेक देशभक्तों, विद्वानों और नेताओं को प्रेरणा प्रदान की ! उनके पिता विश्वनाथ दत्त पाश्चात्य सभ्यता में विश्वास रखते थे !

वे अपने पुत्र नरेंद्र को भी अंगरेजी पढ़ाकर पाश्चात्य सभ्यता के ढंग पर ही चलाना चाहते थे ! नरेंद्र की बुद्धि बचपन से बड़ी तीव्र थी और परमात्मा को पाने की लालसा भी प्रबल थी। इस हेतु वे पहले ब्रह्म समाज में गए किंतु वहां उनके चित्त को संतोष नहीं हुआ !

सन्‌ 1884 में विश्वनाथ दत्त की मृत्यु हो गई ! घर का भार नरेंद्र पर पड़ा , घर की दशा बहुत खराब थी ! कुशल यही थी कि नरेंद्र का विवाह नहीं हुआ था ! अत्यंत गरीबी में भी नरेंद्र बड़े अतिथि-सेवी थे ! स्वयं भूखे रहकर अतिथि को भोजन कराते, स्वयं बाहर वर्षा में रातभर भीगते-ठिठुरते पड़े रहते और अतिथि को अपने बिस्तर पर सुला देते !

रामकृष्ण परमहंस की प्रशंसा सुनकर नरेंद्र उनके पास पहले तो तर्क करने के विचार से ही गए थे किंतु परमहंस जी ने देखते ही पहचान लिया कि ये तो वही शिष्य है जिसका उन्हें कई दिनों से इंतजार है ! परमहंस जी की कृपा से इनको आत्म-साक्षात्कार हुआ फलस्वरूप नरेंद्र परमहंस जी के शिष्यों में प्रमुख हो गए। संन्यास लेने के बाद इनका नाम विवेकानंद हुआ !

स्वामी विवेकानन्द अपना जीवन अपने गुरुदेव स्वामी रामकृष्ण परमहंस को समर्पित कर चुके थे ! गुरुदेव के शरीर-त्याग के दिनों में अपने घर और कुटुंब की नाजुक हालत की परवाह किए बिना, स्वयं के भोजन की परवाह किए बिना गुरु सेवा में सतत हाजिर रहे !गुरुदेव का शरीर अत्यंत रुग्ण हो गया था , कैंसर के कारण गले में से थूंक, रक्त, कफ आदि निकलता था ! इन सबकी सफाई वे खूब ध्यान से करते थे।

एक बार किसी ने गुरुदेव की सेवा में घृणा और लापरवाही दिखाई तथा घृणा से नाक भौंहें सिकोड़ीं , यह देखकर विवेकानंद को गुस्सा आ गया , उस गुरुभाई को पाठ पढ़ाते हुए और गुरुदेव की प्रत्येक वस्तु के प्रति प्रेम दर्शाते हुए उनके बिस्तर के पास रक्त, कफ आदि से भरी थूकदानी उठाकर पूरी पी गए !

गुरु के प्रति ऐसी अनन्य भक्ति और निष्ठा के प्रताप से ही वे अपने गुरु के शरीर और उनके दिव्यतम आदर्शों की उत्तम सेवा कर सके ! गुरुदेव को वे समझ सके, स्वयं के अस्तित्व को गुरुदेव के स्वरूप में विलीन कर सके , समग्र विश्व में भारत के अमूल्य आध्यात्मिक खजाने की महक फैला सके , उनके इस महान व्यक्तित्व की नींव में थी ऐसी गुरुभक्ति, गुरुसेवा और गुरु के प्रति अनन्य निष्ठा !

25 वर्ष की अवस्था में नरेंद्र दत्त ने गेरुआ वस्त्र पहन लिए ! तत्पश्चात उन्होंने पैदल ही पूरे भारतवर्ष की यात्रा की , सन्‌ 1893 में शिकागो (अमेरिका) में विश्व धर्म परिषद् हो रही थी ! स्वामी विवेकानंदजी उसमें भारत के प्रतिनिधि के रूप से पहुंचे , योरप-अमेरिका के लोग उस समय पराधीन भारतवासियों को बहुत हीन दृष्टि से देखते थे , वहां लोगों ने बहुत प्रयत्न किया कि स्वामी विवेकानंद को सर्वधर्म परिषद् में बोलने का समय ही न मिले ! एक अमेरिकन प्रोफेसर के प्रयास से उन्हें थोड़ा समय मिला किंतु उनके विचार सुनकर सभी विद्वान चकित हो गए !

फिर तो अमेरिका में उनका बहुत स्वागत हुआ ! वहां इनके भक्तों का एक बड़ा समुदाय हो गया ! तीन वर्ष तक वे अमेरिका रहे और वहां के लोगों को भारतीय तत्वज्ञान की अद्भुत ज्योति प्रदान करते रहे !

‘अध्यात्म-विद्या और भारतीय दर्शन के बिना विश्व अनाथ हो जाएगा’ यह स्वामी विवेकानंदजी का दृढ़ विश्वास था ! अमेरिका में उन्होंने रामकृष्ण मिशन की अनेक शाखाएं स्थापित कीं ! अनेक अमेरिकन विद्वानों ने उनका शिष्यत्व ग्रहण किया , वे सदा अपने को गरीबों का सेवक कहते थे , भारत के गौरव को देश-देशांतरों में उज्ज्वल करने का उन्होंने सदा प्रयत्न किया !
आज भी युवाओं के लिए प्रासंगिक हैं स्वामी विवेकानंद के उपदेश आपके जीवन का रुख बदल देगें !

दत्त जी सयुंक्त राज्य अमेरिका के (शिकागो) में 1893 में आयोजित विश्व धर्म सभा सम्मेलन में शामिल होने के लिए शिकागो भी गए थे ! विश्व धर्म सभा सम्मेलन में भारत और हिन्दुस्तान के लोगों का प्रतिनिधित्व भी स्वामी जी ने किया था ! वहां उन्होंने हिन्दू धर्म का प्रचार प्रसार भी किया था ! स्वामी जी युवाओं को देश का भविष्य मानते थे यही कारण हैं कि स्वामी जी के जन्म दिन को युवा दिवस के रूप में मनाया जाता है !

प्रारंभिक जीवन

प्रारंभिक जीवन (1863 -1888)
स्वामी जी का जन्म “12 जनवरी 1863 को कोलकाता” के एक परिवार में हुआ था ! उनके बचपन का नाम “नरेन्द्रनाथ दत्त” था ! उनके पिता “विश्वनाथ दत्त” कलकत्ता हाईकोर्ट के प्रसिद वकील थे। उनकी माता का नाम “भुनेश्वरी देवी” था !
उनकी माता धार्मिक विचारों वाली महिला थी !

उनके परिवार में लोगों का आकर्षक भगवान के प्रति अधिक था ! जिसके कारण स्वामी जी का अधिकांश समय भगवान शिव के पूजा अर्चना में व्यतीत होता था ! नरेंद्र के माता पिता के धार्मिक, प्रगतिशील विचारो के कारण उनकी सोच और व्यक्तित्व को आकर देने में मदद मिली !

नरेंद्र बचपन में शरारती व नटखट स्वभाव के थे , वह अपने मित्रो और स्कूल के सहपाठियों के साथ खूब शरारत किया करते थे पर वे पढाई में भी कुशल और तेज थे , नरेन्द्र के घर में भक्ति तथा अध्यात्म के कारण नरेंद्र में भगवान को पाने की लालसा बहुत तीव्र हो गई थी , जिसके कारण कभी कभी स्वामी जी अपने गुरु तथा पंडितो से ऐसे सवाल पूछ लेते की इनके गुरु तथा बड़े- बड़े विद्यवान भी असमंजस में पड़ जाते थे !

👉उनकी शिक्षा📒

स्वामी जी बचपन से ही पढाई में खूब होशियार थे और वे पढाई को महत्व देते थे , यही कारण था की उन्होंने ईश्वरचंद्र विद्यासागर के मेट्रोलिटन संस्थान में दाखिला भी ले लिया था , नरेन्द्र नाथ दर्शन, धर्म इतिहास, सामाजिक विज्ञानं, कला जैसे विषयो के अच्छे पाठक थे , इसके साथ साथ स्वामी जी को वेद, उपनिषद, भगवत गीता, रामायण, महाभारत और अनेक हिन्दू शास्रों में गहन रूचि थी !

इसके साथ-साथ स्वामी जी शारीरिक खेल कूद व्यायाम तथा अन्य कार्यो में भी शामिल होते थे ! उन्होंने ललित कला की परीक्षा को भी पास किया था और 1884 में कला सनातक में डिग्री भी प्राप्त कर लिया था , नरेन्द्र ने अनेक प्रकार के किताबो का अध्ययन किया तथा सस्पेंसर की किताब एजुकेशन (1860) का बंगाली मे अनुवाद भी किया था , अपने सनातक के पढाई के साथ साथ उन्होंने बंगाली साहित्य भी सीखा !

👉कार्य के प्रति निष्ठा 👇

स्वामी जी अपने गुरु की सेवा व समान निस्वार्थ भाव से किया करते थे , एक बार उनके एक मित्र ने गुरुदेव के प्रति घृणा एवं निष्क्रियता दिखाते हुए नाक सिकोड़ा यह देख कर स्वामी जी को क्रोध आ गया था ! वह अपने गुरु भाइयों को सेवा का पाठ पढ़ते और गुरु देव की प्रत्येक वस्तु के प्रति प्रेम दर्शाते उनके बिस्तर के पास पड़े रक्त कप अदि से भरे थूकदानी उठाकर फेकते थे !

गुरु के प्रति ऐसी अनन्य भक्ति एवं निष्ठा के कारण ही वे अपने गुरु के शरीर एवं दिव्यत्म आदर्शो की उत्तम सेवा कर सकें , गुरुदेव को समझने स्वयं के अस्तित्व को गुरु देव में विलीन करने और आगे चलकर समग्र विश्व में भारत के अमूल्य आध्यत्मिक भंडार को विश्व में फैला सकें !

उनके इस महान व्यक्तित्व की नींव में गुरु भक्ति, गुरुसेवा और गुरु के प्रति अनन्य निष्ठा जिसका परिणाम संसार ने देखा , स्वामी जी ने अपना जीवन अपने गुरु के प्रति समर्पित कर दिया था , गुरु देव के शरीर त्याग के दिनों में अपने घर और कुटुम्ब की नाजुक हालत एवं स्वयं के भोजन की चिंता किये बिना वे गुरुदेव की सेवा में सतत सलंगन रहे , विवेकानंद बड़े ही स्वपनदृष्टा थे, उन्होंने एक ऐसे समाज की कल्पना की थी जिसमे धर्म या जाति के आधार पर लोगो में कोई भेद न रहे , उन्होंने वेदान्ता के सिद्धान्तों को इसी रूप में रखा था !

👉सम्मेलन सभा भाषण👇

स्वामी जी ने बहुत सारे धर्म सभा सम्मेलन किया था पर उनका अमेरिका का धर्म सम्मेलन कुछ खास था , क्योंकि उन्होंने जिस शब्द से सुरुवात किया था उस शब्द ने सब का मन मोह लिया था , “मेरे प्यारे अमरीकी भाइयों और बहनों” आप ने जिस उदर भाव से सहृदय के साथ हम लोगो का स्वागत किया है , उसके प्रति आभार प्रकट करने के निमित खड़े होते समय मेरा हृदय अवर्णीय हर्ष से पूर्ण हो रहा है , हमारे देश तथा हम सब की तरफ से मैं आप सब का सहृदय धन्यवाद करता हूँ !

सभी समप्रदयो एवं मतों के कोटि कोटि हिन्दुओं के ओर से भी धन्यवाद देता हूँ , मुझे गर्व हैं कि मैं एक ऐसे धर्म का अनुयायी हूँ , जिसने संसार को सहिषुणता तथा संस्कारो की सवीकृत दोनों की शिक्षा दी है , मुझे एक ऐसे देश का नागरिक होने का अभिमान है जिसने समस्त देशों और धर्मो के उत्पीड़ितों और शरणार्थियो को आश्रय दिया हैं , मैं आप लोगो को कुछ पंक्तिओं सुनना चाहता हूँ जिसकी आवृर्ति मैं बचपन से कर रहा हूँ और जिसकी आवर्ती लाखों व्यक्ति रोज किया करते हैं !

श्लोक== ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम्। मम वर्त्मानुवर्तन्ते मनुष्याः पार्थ सर्वशः॥

अथार्त जो कोई मेरे तरफ आता है चाहे किसी भी प्रकार से हो मैं उसे प्राप्त होता हूँ। लोग विभिन्न मार्ग से प्रयत्न करते हुऐ मेरी ही ओर आते हैं।

👉उनकी यात्रा 👇

स्वामीजी ने 24 वर्ष की उम्र में ही सन्यासी जीवन में प्रवेश कर दिया था और वे गेरुवा वस्र धारण कर ने लगे थे , इसके पश्चात उन्होंने पैदल ही पुरे भारत की यात्रा की थी , स्वामी जी ने 31 मई 1893 को अपनी यात्रा शुरू की और जापान के कई शहरों का दौरा किया, चीन और कनाडा होते हुए अमेरिका के शिकागो पहुँचे सन 1893 में शिकागो (अमेरिका) में विश्व धर्म परिषद हो रहा था , स्वामी विवेकनन्द ने उस परिषद में भारत के ओर से प्रतिनिधित्व किया , यूरोप अमेरिका के लोग उस समय भारत के लोगो को बहुत दृष्टिहींन नज़र से देखते थे !

वँहा के कुछ लोगो ने प्रयत्न किया की स्वामी जी को बोलने का मौका ही न मिले परंतु एक अमेरिकन प्रोफेसर के प्रयास से उन्हें थोड़ा समय मिल गया , उस परिषद में उनके विचार सुनकर बड़े बड़े विद्यवान चकित हो गए , फिर तो अमेरिका में उनका अत्यधिक स्वागत हुआ , वहाँ स्वामी जी के अनेक भक्त भी बन गए थे , स्वामी विवेकानंद अमेरिका में 3 साल रहे और लोगों को भारत के अनेक विचार और संस्कृति का ज्ञान दिया !

उनके ज्ञान और बुद्धिमता को देखते हुए अमेरिका के मीडिया ने उन्हें साइक्लॉनिक हिन्दू का नाम दिया था ! “आद्यतम – विद्या और भारतीय दर्शन के बिना विश्व अनाथ हो जायेगा” यह स्वामी विवेकानंद का विश्वास था , अमेरिका में उन्होंने रामकृष्णन मिशन के कई मंडल स्थापित किये , स्वामी जी सदैव गरीबों की मदत किया करते थे जिसके कारण लोग उन्हें गरीबों का सेवक भी कहते थे , स्वामी जी ने देश देशांतरों में अपने देश का नाम उज्वल करने का प्रयत्न किया था !

👉स्वामी विवेकानंद के योगदान तथा महत्त्व 👇

स्वामी विवेकानंद के जीवन परिचय से ज्ञात होता है की स्वामी जी जो काम उन्तालीस वर्ष के संछिप्त जीवन काल में कर गए थे वह ज्ञान आने वाले पीढ़ियों को मार्ग दर्शन करता रहेगा। 30 वर्ष की आयु में स्वामी जी ने शिकागो के विश्व हिन्दू सम्मेलन में भारत का प्रतिनिधित्व किया और भारत को एक अलग पहचान दिलाने में मदत किया !

रवींद्र नाथ ठाकुर ने एक बार कहा था की “अगर आप भारत को जानना चाहते हो तो विवेकानंद को पढ़िये उनमे आप सब कुछ सकारात्मक ही पायेंगे, नकारात्मक कुछ भीम नाम नरेन्द्रनाथ दत्त था। स्वामी जी का अध्यात्म में अधिक लगवा था और वह अपने गुरु श्री रामकृष्णा परमहंस से काफी प्रभावित थे। अपने गुरु के मृत्युपरांत उन्होंने बड़े पैमाने पर भारतीय महाद्वीपों का दौरा किया और ब्रिटिश गतविधियों का संपूर्ण अध्ययन किया।

इसके साथ-साथ स्वामी जी शारीरिक खेल कूद व्यायाम तथा अन्य कार्यो में भी शामिल होते थे। उन्होंने ललित कला की परीक्षा को भी पास किया था और 1884 में कला सनातक में डिग्री भी प्राप्त कर लिया था। नरेन्द्र ने अनेक प्रकार के किताबो का अध्ययन किया तथा सस्पेंसर की किताब एजुकेशन (1860) का बंगाली मे अनुवाद भी किया था। अपने सनातक के पढाई के साथ साथ उन्होंने बंगाली साहित्य भी सीखा।

उनके इस महान व्यक्तित्व की नींव में गुरु भक्ति, गुरुसेवा और गुरु के प्रति अनन्य निष्ठा जिसका परिणाम संसार ने देखा। स्वामी जी ने अपना जीवन अपने गुरु के प्रति समर्पित कर दिया था। गुरु देव के शरीर त्याग के दिनों में अपने घर और कुटुम्ब की नाजुक हालत एवं स्वयं के भोजन की चिंता किये बिना वे गुरुदेव की सेवा में सतत सलंगन रहे। विवेकानंद बड़े ही स्वपनदृष्टा थे। उन्होंने एक ऐसे समाज की कल्पना की थी जिसमे धर्म या जाति के आधार पर लोगो में कोई भेद न रहे। उन्होंने वेदान्ता के सिद्धान्तों को इसी रूप में रखा था।

सभी समप्रदयो एवं मतों के कोटि कोटि हिन्दुओं के ओर से भी धन्यवाद देता हूँ। मुझे गर्व हैं कि मैं एक ऐसे धर्म का अनुयायी हूँ। जिसने संसार को सहिषुणता तथा संस्कारो की सवीकृत दोनों की शिक्षा दी है। मुझे एक ऐसे देश का नागरिक होने का अभिमान है जिसने समस्त देशों और धर्मो के उत्पीड़ितों और शरणार्थियो को आश्रय दिया हैं। मैं आप लोगो को कुछ पंक्तिओं सुनना चाहता हूँ जिसकी आवृर्ति मैं बचपन से कर रहा हूँ और जिसकी आवर्ती लाखों व्यक्ति रोज किया करते हैं।

श्लोक == रुचीनां वैचित्र्यादृजुकुटिलनानापथजुषाम्। नृणामेको गम्यस्त्वमसि पयसामर्णव इव॥

इस पंक्ति का अर्थ है की जिस प्रकार अनेक नदियाँ भिन्न -भिन्न स्रोतों से निकल कर समुंद्र में मिल जाती हैं, उसी प्रकार हे प्रभो ! भिन्न -भिन्न रुचि के अनुसार विभिन्न टेढ़े मेढ़े तथा सीधे रास्ते से जाने वाले लोग आकर तुझ में ही मिल जाते है।

श्लोक == ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम्। मम वर्त्मानुवर्तन्ते मनुष्याः पार्थ सर्वशः॥

अथार्त जो कोई मेरे तरफ आता है चाहे किसी भी प्रकार से हो मैं उसे प्राप्त होता हूँ। लोग विभिन्न मार्ग से प्रयत्न करते हुऐ मेरी ही ओर आते हैं

वँहा के कुछ लोगो ने प्रयत्न किया की स्वामी जी को बोलने का मौका ही न मिले परंतु एक अमेरिकन प्रोफेसर के प्रयास से उन्हें थोड़ा समय मिल गया। उस परिषद में उनके विचार सुनकर बड़े बड़े विद्यवान चकित हो गए। फिर तो अमेरिका में उनका अत्यधिक स्वागत हुआ। वहाँ स्वामी जी के अनेक भक्त भी बन गए थे। स्वामी विवेकानंद अमेरिका में 3 साल रहे और लोगों को भारत के अनेक विचार और संस्कृति का ज्ञान दिया।

उनके ज्ञान और बुद्धिमता को देखते हुए अमेरिका के मीडिया ने उन्हें साइक्लॉनिक हिन्दू का नाम दिया था। “आद्यतम – विद्या और भारतीय दर्शन के बिना विश्व अनाथ हो जायेगा” यह स्वामी विवेकानंद का विश्वास था। अमेरिका में उन्होंने रामकृष्णन मिशन के कई मंडल स्थापित किये। स्वामी जी सदैव गरीबों की मदत किया करते थे जिसके कारण लोग उन्हें गरीबों का सेवक भी कहते थे। स्वामी जी ने देश देशांतरों में अपने देश का नाम उज्वल करने का प्रयत्न किया था।

👉स्वामी विवेकानंद के योगदान तथा महत्त्व 👇

स्वामी विवेकानंद के जीवन परिचय से ज्ञात होता है की स्वामी जी जो काम उन्तालीस वर्ष के संछिप्त जीवन काल में कर गए थे वह ज्ञान आने वाले पीढ़ियों को मार्ग दर्शन करता रहेगा ! 30 वर्ष की आयु में स्वामी जी ने शिकागो के विश्व हिन्दू सम्मेलन में भारत का प्रतिनिधित्व किया और भारत को एक अलग पहचान दिलाने में मदत किया !

रवींद्र नाथ ठाकुर ने एक बार कहा था की “अगर आप भारत को जानना चाहते हो तो विवेकानंद को पढ़िये उनमे आप सब कुछ सकारात्मक ही पायेंगे, नकारात्मक कुछ भी नहीं , “रोमां रोलां ने कहा था की विवेकानंद के जैसा कोई दुसरा व्यक्ति होना मुमकिन नहीं है, वे जहाँ भी गए सर्वप्रथम ही रहे उनमे लोग अपने प्रतिनिधि का दिग्दर्शन करते थे !

वे ईश्वर के प्रतिनिधि थे और सब पर प्रभुत्वा प्राप्त कर लेना उनका भाव था। वे केवल संत ही नहीं, एक अच्छे वक्ता, एक अच्छे लेखक और मानव प्रेमी भी थे। उन्होंने कहा था की मुझे ऐसे युवा सन्यासी चाहिए जो भारत के ग्रामों में फैलकर देशवासियों की सेवा में खप जाएं। लेकिन उनका यह सपना पूरा नहीं हुआ। स्वामी विवेकानंद पुरोहितवाद, धार्मिक आडंबरों और रूढ़ियों के शख्त खिलाफ थे।

उनका कहना था की देश के गरीब दारिद्र और भूखे लोगों को मंदिरो में स्थापित कर देना चाहिये और देवी देवतों के मूर्तियों को हटा देना चाहिए ! उनका यह कथन उस समय लोगों के मन में बहुत सारे प्रश्न खड़े करता था उनकी यह बात सुनकर पुरोहित वर्ग की घिग्घी बंध गयी थी स्वामी जी का मानना था की हर जात व धर्म एक सामान है और किसी को किसी धर्म को बुरा या गलत नहीं कहना चाहिए !

👉शिक्षा के विषय में स्वामी जी के विचार👇

स्वामी विवेकानंद अंग्रेजों द्वारा शुरू किए गए अंग्रेजी शिक्षा व्यवस्था के विरोधी थे, क्योंकि इस शिक्षा का उद्देश्य सिर्फ बाबुओं की संख्या बढ़ाना था , वह ऐसी शिक्षा चाहते थें जिससे बालक का सर्वांगीण विकास हो सकें बालक की शिक्षा का उद्देश्य उसको आत्मनिर्भर बनाकर अपने पैरों पर खड़ा करना है !

स्वामी विवेकानन्द ने प्रचलित शिक्षा को ‘निषेधात्मक शिक्षा ‘ की संज्ञा देते हुए कहा है की आप उस व्यक्ति को शिक्षित मानते जिसने कुछ परीक्षाएं उत्तीर्ण कर ली हों तथा जो अच्छे भाषण दे सकता हो, पर वास्तविकता यह है की जो शिक्षा जनसाधारण को जीवन संघर्ष के लिए तैयार नहीं करता, जो चरित्र निर्माण नहीं करता, जो समाज सेवा की भावना को विकसित नहीं करता तथा जो शेर जैसा साहस पैदा नहीं कर सकता, ऐसी शिक्षा से क्या लाभ ?

अंत: स्वामी जी सैध्यांतिक शिक्षा के पक्ष में नहीं थे, वे व्यावहारिक शिक्षा को व्यक्ति के लिए उपयोगी मानते थें , व्यक्ति की शिक्षा ही उसे भविष्य के लिया तैयार करती है, इसलिए शिक्षा में उन तत्वों का होना जरूरी हैं, जो उसके भविष्य के लिए महत्वपुर्ण हो स्वामी विवेकानन्द के शब्दों में, ““तुमको कार्य के सभी क्षेत्रों में व्यवाहारिक बनना पड़ेगा !

वे ईश्वर के प्रतिनिधि थे ! और सब पर प्रभुत्वा प्राप्त कर लेना उनका भाव था। वे केवल संत ही नहीं, एक अच्छे वक्ता, एक अच्छे लेखक और मानव प्रेमी भी थे। उन्होंने कहा था की मुझे ऐसे युवा सन्यासी चाहिए जो भारत के ग्रामों में फैलकर देशवासियों की सेवा में खप जाएं , लेकिन उनका यह सपना पूरा नहीं हुआ , स्वामी विवेकानंद पुरोहितवाद, धार्मिक आडंबरों और रूढ़ियों के शख्त खिलाफ थे !

उनका कहना था की देश के गरीब दारिद्र और भूखे लोगों को मंदिरो में स्थापित कर देना चाहिये और देवी देवतों के मूर्तियों को हटा देना चाहिए , उनका यह कथन उस समय लोगों के मन में बहुत सारे प्रश्न खड़े करता था , उनकी यह बात सुनकर पुरोहित वर्ग की घिग्घी बंध गयी थी , स्वामी जी का मानना था की हर जात व धर्म एक सामान है और किसी को किसी धर्म को बुरा या गलत नहीं कहना चाहिए !

👉स्वामी विवेकानंद के वचन 👇

“उठो जागो और तब तक मत रुको जब तक लक्ष्य प्राप्त न हो जायें।”

एक समय में एक कार्य करो और करते समय अपनी पूरी आत्मा उसमे झोक दो !

पहले हर अच्छी बात का मजाक बनता है फिर विरोध होता है अंत में उसे स्वीकार लिया जाता है !

एक अच्छे चरित्र का निर्माण हज़ारों बार ठोकर खा कर होता है !

👉मृत्यु 👇

स्वामी जी पुरे विश्व में प्रसिद्ध व चर्चित थे , जीवन के अंतिम काल में उन्होंने शुक्ल यजुर्वेद की व्याख्या की और कहाँ “एक और विवेकानंद चाहिये, यह समझने के लिए की इस विवेकानंद ने अब तक क्या किया है , “उनके शिष्यों के अनुसार जीवन के अंतिम दिन 4 जुलाई 1902 को भी उन्होंने अपने ध्यान करने की दिनचर्या को नहीं बदला और प्रातः दो तीन घंटे तक ध्यान किया और ध्यानवस्था में ही ईशवर में लुप्त हो गए अर्थात 4 जुलाई सन् 1902 को उन्होंने देह त्याग किया…!

नाम — स्वामी विवेकानन्द दत्त
जन्म — 12 जनवरी 1863 ई.
बचपन का नाम — नरेन्द्रनाथ दत्त
पिता का नाम — विश्वनाथ दत्त
माता का नाम — भुवनेश्वरी देवी
शिष्या — माइग्रेट नोबेल (भगिनी निवेदिता)
मृत्यु– 4 जुलाई 1902

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