{{{ गुरु गोविन्द सिंह का जीवन परिचय }}}
भला अपने पुत्रों से किसे प्यार नहीं होगा पर पुत्र प्रेम से भी बढ़कर इस संसार में एक और वस्तु है जिसे हम देश- प्रेम या धर्म- प्रेम कहते हैं !
अतः धर्म प्रेम और देश प्रेम के कारण गुरु गोविंद सिंह ने मातृभूमि की बलिवेदी पर अपने प्यारे पुत्रों को न्यछावर कर दिया यह घटना आज से ढाई सौ वर्ष पहले की है उस समय दिल्ली में मुगल सम्राट औरंगजेब राज करता था! उसने एक शक्तिशाली सेना गुरु गोविंद सिंह की राजधानी आनंदपुर को मटिया मेल करने के लिए भेज दी !
गुरु गोविंद सिंह अपने समय के महान वीर और तीरंदाज थे !उन्होंने 9 माह तक मुगल सेना को रोके रखा परंतु धीरे-धीरे आनंदपुर के किले में अनार समाप्त हो गया और सैनिक भूखे मरने लगे तब गुरु गोविंद सिंह ने गढ़ छोड़ने का निश्चय कर अपने चारों पुत्रों, पत्नियों और माता को साथ लेकर बाहर निकले और चमकौर दुर्ग में जा पहुंचे !
यह पता लगते ही मुगल सेना ने चमकौर के दुर्ग को जा घेरा गुरुजी के पास केवल मुट्ठी भर सैनिक बचे थे । उनके बड़े पुत्र अजीत सिंह की आयु इस समय 18 वर्ष की थी उसने पिता के चरणों में प्रणाम करके कहा पूज्य पिताजी क्षत्रिय का कर्तव्य युद्ध भूमि में शत्रु से लड़ते हुए वीरगति पाना है हमारा इस तरह गढ़ के भीतर छुप कर बैठे रहना ठीक नहीं अतः आप मुझे आज्ञा दीजिए मैं शत्रु से आमने-सामने युद्ध करना चाहता हूं ।गुरु जी को पुत्र के मुंह से यह वीरता पूर्ण वचन सुनकर अत्यंत प्रसन्नता हुई उन्होंने अजित सिंह को अपने हाथों से अस्त्र शस्त्रों से सुसज्जित करके कहा आओ मेरे प्यारे वीर मातृभूमि तुम्हारा बलिदान मांग रही है । पिताजी की आज्ञा पाकर अजीत सिंह 5 सैनिकों को लेकर शत्रु सेना पर झपट पड़े और उसने वहां ऐसी मारकाट मचाई की शत्रु पक्ष में हाहाकार मच गया उसके 5 साथी लड़ते-लड़ते मारे गए परंतु वह निराश ना हुआ ।
उसके शरीर में असंख्य घाव हो गए थे और खून से उसका शरीर नहा गया था । इसी बीच एक मुगल सैनिक की बर्छी उसके हृदय में लगी वह इस अघात को सहन नहीं कर सका और मातृभूमि की जय पुकारते हुए सदा के लिए युद्ध भूमि में सो गया । बड़े भाई के बलिदान को देखकर छोटे भाई जुझार सिंह ने भी पिता से युद्ध में जाने की आज्ञा मांगी ।
उस समय उसकी अवस्था केवल 15 वर्ष की थी गुरु गोविंद सिंह ने भरे नयनों से उसे भी मातृभूमि पर बलिदान होने की आज्ञा दे दी । माता- पिता की आज्ञा पाकर जुझार सिंह भी कुछ वीरों के साथ मुगल सेना पर टूट पड़ा और शत्रुओं का विध्वंस करता हुआ युद्ध भूमि में शत्रुओं द्वारा मारा गया !
इस प्रकार अजीत सिंह और जुझार सिंह नामक इन दोनों पुत्रों ने मुगलों को भारतीय बालकों के साहस एवं वीरता का एक अच्छा सबक सिखा दिया । इन दोनों वीरों का बलिदान दिसंबर सन् 1704 ई. में हुआ !
गुरु गोबिन्द सिंह आप सिखों के दसवें गुरु थे। आपके पिता जी श्री गुरू तेग बहादुर जी की शहादत के उपरान्त 11 नवम्बर सन 1675 को 10 वें गुरू बने। आप एक महान योद्धा, कवि, भक्त एवं आध्यात्मिक नेता थे। सन 1699 में बैसाखी के दिन उन्होंने खालसा पंथ की स्थापना की जो सिखों के इतिहास का सबसे महत्वपूर्ण दिन माना जाता है।
तो वहीं जिस लिखित स्त्रोत से गुरु गोविंद सिंह के बारे में जानकारी मिलती है, वह विचित्र ग्रंथ उनकी आत्मकथा के रूप में जाना जाता है। साथ ही कई विशेष लिखित रचनाएं जैसे कि दसम ग्रंथ, जाप साहिब, अकाल उस्तत, चण्डी चरित्र, जफरनामा, शास्त्र नाम माला, अथ पख्याँ चरित्र लिख्यते, खालसा महिमा आदि गुरु गोविंद सिंह द्वारा ही रचित है।
इसके अलावा वह एक दार्शनिक, कवि और महान योद्धा थे. गोबिंद राय के रूप में जन्मे, वे नौवें सिख गुरु तेग बहादुर के बाद दसवे सिख गुरु के रूप में उभरे. गुरु तेग बहादुर को मुगल सम्राट औरंगजेब के आदेशानुसार सार्वजनिक रूप से सिर कलम कर दिया गया था क्योंकि उन्होंने इस्लाम में परिवर्तित होने से इनकार कर दिया था.
10वें सिख गुरु, गुरु गोबिंद जी की तीन शादियां हुई थी, उनका पहला विवाह आनंदपुर के पास स्थित बसंतगढ़ में रहने वाले कन्या जीतो के साथ हुआ था। इन दोनों को शादी के बाद जोरावर सिंह, फतेह सिंह और जुझार सिंह नाम की तीन संतान पैदा हुई थी।
इसके बाद माता सुंदरी से उनकी दूसरी शादी हुई थी और शादी के बाद इनसे उन्हें अजित सिंह नाम के पुत्र की प्राप्ति हुई थी। फिर गुरु गोविंद जी ने माता साहिब से तीसरी शादी की थी, लेकिन इस शादी से उन्हें कोई भी संतान प्राप्त नहीं हुआ था।
इस अत्याचार के खिलाफ गुरु गोविंद सिंह ने खालसा नामक सिख योद्धा समुदाय की स्थापना की. जिसे सिख धर्म के इतिहास में एक महत्वपूर्ण घटना के रूप में चिह्नित किया. उन्होंने पाँच लेखों को पाँच ककार के रूप में प्रसिद्ध भी पेश किया और हर समय पहनने के लिए खालसा सिखों को आज्ञा दी. गुरु के अन्य योगदानों में सिख धर्म पर महत्वपूर्ण ग्रंथ लिखना और सिखों के शाश्वत जीवित गुरु के रूप में गुरु ग्रंथ साहिब (सिख धर्म के धार्मिक ग्रंथ) को धारण करना शामिल है.
गुरु गोविंद सिंह के द्वारा कहा गया पंक्ति >>>
सवा लाख से एक लड़ाऊं, चिड़ियन ते मैं बाज तुड़ाऊं, तबै गुरु गोबिंद सिंह नाम कहाऊं”,
गुरु गोबिंद सिंह के द्धारा किए गए प्रमुख कामों की सूची इस प्रकार है<<<
गुरु गोबिंद साहब जी ने ही सिखों के नाम के आगे सिंह लगाने की परंपरा शुरु की थी, जो आज भी सिख धर्म के लोगों द्धारा चलाई जा रही है।
गुरु गोबिंद सिंह जी ने कई बड़े सिख गुरुओं के महान उपदेशों को सिखों के पवित्र ग्रंथ, गुरु ग्रंथ साहिब में संकलित कर इसे पूरा किया था।
वाहेगुरु, गुरु गोबिंद सिंह जी ने ही गुरुओं के उत्तराधिकारियों की परंपरा को खत्म किया, सिख धर्म के लोगों के लिए गुरु ग्रंथ साहिब को सबसे पवित्र एवं गुरु का प्रतीक बनाया।
सिख धर्म के 10वें गुरु गोबिंद जी ने साल 1669 में मुगल बादशाहों के खिलाफ विरोध करने के लिए खालसा पंथ की स्थापना की थी।
सिख साहित्य में गुरु गोबिन्द जी के महान विचारों द्धारा की गई “चंडी दीवार” नामक साहित्य की रचना खास महत्व रखती है।
सिखों के दसवें गुरु गुरु गोबिन्द साहब ने ही युद्द में हमेशा तैयार रहने के लिए ‘5 ककार’ या ‘5 कक्के’ को सिखों के लिए जरूरी बताया, इसमें केश (बाल), कच्छा, कड़ा, कंघा, कृपाण (छोटी तलवार) आदि शामिल हैं।
सिखों के 10वें गुरु गोबिंद सिंह जी ने अ्पने सिख अनुयायियों के साथ मुगलों के खिलाफ कई बड़ी लड़ाईयां लड़ीं।
इतिहासकारों की माने तो गोबिंद सिंह जी ने अपने जीवन में 14 युद्ध किए, इस दौरान उन्हें अपने परिवार के सदस्यों के साथ कुछ बहादुर सिख सैनिकों को भी खोना पड़ा।
लेकिन गुरु गोविंद जी ने बिना रुके बहादुरी के साथ अपनी लड़ाई जारी रखी।
उन्होंने जब भीखन शाह से इस बारे में पूछा तो उन्होंने बताया कि इन दो मटकों में से एक हिन्दू और दूसरा मुस्लिम कौम का था। मैं ये देखना चाहता था कि अल्लाह का भेजा हुआ यह अवतार मुसलामानों की रक्षा के लिए आया है या हिन्दूओं की। मगर जो मैंने देखा उसके बाद मैं चकित रहा गया।
गुरु गोविंद सिंह जी एक महान संत सिपाही थे जिन्होंने सिख पंथ को एक नया रूप दिया। गुरु गोविंद सिंह जी के बलिदान को कभी भी भुलाया नहीं जा सकता।
गरू गोबिन्द सिंह ने सिखों की पवित्र ग्रन्थ गुरु ग्रंथ साहिब को पूरा कर गुरु रूप में सुशोभित किया | गुरु गोबिंद सिंह जी एक महान योद्धा, कवि, भक्त एवं आध्यात्मिक नेता थे उन्होंने धर्म के लिए समस्त परिवार का बलिदान किया | जिसके लिए उन्हें ‘सरबंसदानी’ (सर्ववंशदानी) भी कहा जाता है | गुरु गोविंद सिंह कलगीधर, दशमेश, बाजांवाले आदि कई नाम, उपनाम व उपाधियों से भी जाने जाते हैं |
गुरु गोविंद सिंह जी ने सदा प्रेम, एकता, भाईचारे का संदेश दिया | उनकी मान्यता थी कि मनुष्य को किसी को डराना नहीं चाहिए और न किसी से डरना चाहिए | उनकी वाणी में मधुरता, सादगी, सौजन्यता एवं वैराग्य की भावना कूट-कूटकर भरी थी | उनके जीवन का प्रथम दर्शन ही था कि धर्म का मार्ग सत्य का मार्ग है और सत्य की सदैव विजय होती है | गुरु गोबिंद सिंह जी ने अपना पूरा जीवन लोगों की सेवा और सच्चाई की राह पर चलते हुए ही गुजार दी थी | गुरु गोविंद सिंह की मृत्यु 42 वर्ष की उम्र में 7 अक्टूबर 1708 को नांदेड़, महाराष्ट्र में हुई |
गुरु गोबिंद सिंह जी सीखो के 10 वें गुरु थे | गुरु गोविंद सिंह का जन्म नौवें सिख गुरु के घर पटना के साहिब में पौष शुक्ल सप्तमी संवत् 1723 यानि की 22 दिसम्बर 1666 को हुआ था | उनके बचपन का नाम गोविन्द राय था | 1670 में गुरु गोबिंद सिंह का परिवार पंजाब में आ गया | गुरु गोबिंद सिंह जी एक महान योद्धा, कवि, भक्त एवं आध्यात्मिक नेता थे | 1699 बैसाखी के दिन गुरु गोबिंद सिंह ने खालसा पंथ की स्थापना की थी यह दिन सिखों के इतिहास का सबसे महत्वपूर्ण दिन माना जाता है | कहा जाता है कि गुरु गोबिंद सिंह जी ने अपना पूरा जीवन लोगों की सेवा और सच्चाई की राह पर चलते हुए ही गुजार दी थी | गुरु गोबिंद सिंह का उदाहरण और शिक्षाएं आज भी लोगों को प्रेरित करती है |
गरू गोबिन्द सिंह ने सिखों की पवित्र ग्रन्थ गुरु ग्रंथ साहिब को पूरा कर गुरु रूप में सुशोभित किया | गुरु गोबिंद सिंह जी एक महान योद्धा, कवि, भक्त एवं आध्यात्मिक नेता थे उन्होंने धर्म के लिए समस्त परिवार का बलिदान किया | जिसके लिए उन्हें ‘सरबंसदानी’ (सर्ववंशदानी) भी कहा जाता है | गुरु गोविंद सिंह कलगीधर, दशमेश, बाजांवाले आदि कई नाम, उपनाम व उपाधियों से भी जाने जाते हैं |
गुरु गोविंद सिंह जी ने सदा प्रेम, एकता, भाईचारे का संदेश दिया | उनकी मान्यता थी कि मनुष्य को किसी को डराना नहीं चाहिए और न किसी से डरना चाहिए | उनकी वाणी में मधुरता, सादगी, सौजन्यता एवं वैराग्य की भावना कूट-कूटकर भरी थी | उनके जीवन का प्रथम दर्शन ही था कि धर्म का मार्ग सत्य का मार्ग है और सत्य की सदैव विजय होती है | गुरु गोबिंद सिंह जी ने अपना पूरा जीवन लोगों की सेवा और सच्चाई की राह पर चलते हुए ही गुजार दी थी | गुरु गोविंद सिंह की मृत्यु 42 वर्ष की उम्र में 7 अक्टूबर 1708 को नांदेड़, महाराष्ट्र में हुई |
गुरु गोबिंद जी का विवाह <<<
10वें सिख गुरु, गुरु गोबिंद जी की तीन शादियां हुई थी, उनका पहला विवाह आनंदपुर के पास स्थित बसंतगढ़ में रहने वाले कन्या जीतो के साथ हुआ था। इन दोनों को शादी के बाद जोरावर सिंह, फतेह सिंह और जुझार सिंह नाम की तीन संतान पैदा हुई थी।
इसके बाद माता सुंदरी से उनकी दूसरी शादी हुई थी और शादी के बाद इनसे उन्हें अजित सिंह नाम के पुत्र की प्राप्ति हुई थी। फिर गुरु गोविंद जी ने माता साहिब से तीसरी शादी की थी, लेकिन इस शादी से उन्हें कोई भी संतान प्राप्त नहीं हुआ था।
गुरु गोबिंद सिंह के द्धारा किए गए प्रमुख कार्यो की सूची इस प्रकार है<<<
गुरु गोबिंद साहब जी ने ही सिखों के नाम के आगे सिंह लगाने की परंपरा शुरु की थी, जो आज भी सिख धर्म के लोगों द्धारा चलाई जा रही है।
गुरु गोबिंद सिंह जी ने कई बड़े सिख गुरुओं के महान उपदेशों को सिखों के पवित्र ग्रंथ, गुरु ग्रंथ साहिब में संकलित कर इसे पूरा किया था।
वाहेगुरु, गुरु गोबिंद सिंह जी ने ही गुरुओं के उत्तराधिकारियों की परंपरा को खत्म किया, सिख धर्म के लोगों के लिए गुरु ग्रंथ साहिब को सबसे पवित्र एवं गुरु का प्रतीक बनाया।
सिख धर्म के 10वें गुरु गोबिंद जी ने साल 1669 में मुगल बादशाहों के खिलाफ विरोध करने के लिए खालसा पंथ की स्थापना की थी।
सिख साहित्य में गुरु गोबिन्द जी के महान विचारों द्धारा की गई “चंडी दीवार” नामक साहित्य की रचना खास महत्व रखती है।
सिखों के दसवें गुरु गुरु गोबिन्द साहब ने ही युद्द में हमेशा तैयार रहने के लिए ‘5 ककार’ या ‘5 कक्के’ को सिखों के लिए जरूरी बताया, इसमें केश (बाल), कच्छा, कड़ा, कंघा, कृपाण (छोटी तलवार) आदि शामिल हैं।
गुरु गोबिंद सिंह द्धारा लड़े हुए कुछ प्रमुख युद्ध <<<
सिखों के 10वें गुरु गोबिंद सिंह जी ने अ्पने सिख अनुयायियों के साथ मुगलों के खिलाफ कई बड़ी लड़ाईयां लड़ीं।
इतिहासकारों की माने तो गोबिंद सिंह जी ने अपने जीवन में 14 युद्ध किए, इस दौरान उन्हें अपने परिवार के सदस्यों के साथ कुछ बहादुर सिख सैनिकों को भी खोना पड़ा।
लेकिन गुरु गोविंद जी ने बिना रुके बहादुरी के साथ अपनी लड़ाई जारी रखी।
गुरु गोबिंद सिंह द्धारा लड़ी गई लड़ाईयां इस प्रकार है <<<
भंगानी का युद्ध (1688)
नंदौन का युद्ध (1691)
गुलेर का युद्ध (1696)
आनंदपुर का पहला युद्ध (1700)
निर्मोहगढ़ का युद्ध (1702)
बसोली का युद्ध (1702)
चमकौर का युद्ध (1704)
आनंदपुर का युद्ध (1704) )
सरसा का युद्ध (1704)
मुक्तसर का युद्ध (1705)
गुरु गोविंद जी की कुछ रचनाओं के नाम निम्नलिखित हैं <<<
चंडी दी वार
जाप साहिब
खालसा महिमा
अकाल उस्तत
बचित्र नाटक
ज़फ़रनज़फ़रना
गुरु गोबिंद सिंह जी ने खालसा पंथ की स्थापना <<<
सन्1699 में खालसा पंथ की स्थापना बैसाखी के दिन गुरु गोबिन्द सिंह द्वारा की गई। इसका मुख्य उद्देश्य मानवता पर हो रहे अत्याचार से मानव समाज की रक्षा करना है।
गुरु गोविंद सिंह से जुड़े कुछ रोचक तथ्य <<<
गुरु गोबिन्द सिंह को पहले गोबिन्द राय से जाना जाता था। जिनका जन्म सिक्ख गुरु तेग बहादुर सिंह के घर पटना में हुआ, उनकी माता का नाम गुजरी था।
16 जनवरी को गुरु गोबिन्द सिंह का जन्म दिन मनाया जाता है। गुरूजी का जन्म गोबिन्द राय के नाम से 22 दिसम्बर 1666 में हुआ था। लूनर कैलेंडर के अनुसार 16 जनवरी ही गुरु गोबिन्द सिंह का जन्म दिन है।
बचपन में ही गुरु गोबिन्द सिंह के अनेक भाषाए सीखी जिसमें संस्कृत, उर्दू, हिंदी, ब्रज, गुरुमुखी और फारसी शामिल है। उन्होंने योद्धा बनने के लिए मार्शल आर्ट भी सिखा।
गुरु गोबिन्द सिंह आनंदपुर के शहर में जो की वर्तमान में रूपनगर जिल्हा पंजाब में है।
उन्होंने इस जगह को भीम चंड से हाथापाई होने के कारण छोडा और नहान चले गए जो की हिमाचल प्रदेश का पहाड़ी इलाका है।
नहान से गुरु गोबिन्द सिंह पओंता चले गए जो यमुना तट के दक्षिण सिर्मुर हिमाचल प्रदेश के पास बसा है।
वहा उन्होंने पओंता साहिब गुरुद्वारा स्थापित किया और वे वहाँ सिक्ख मूलो पर उपदेश दिया करते थे फिर पओंता साहिब सिक्खों का एक मुख्य धर्मस्थल बन गया। वहाँ गुरु गोबिन्द सिंह पाठ लिखा करते थे। वे तिन वर्ष वहाँ रहे और उन तीनो सालो में वहा बहुत भक्त आने लगे।
सितम्बर 1688 में जब गुरु गोबिन्द सिंह 19 वर्ष के थे तब उन्होंने भीम चंड, गर्वल राजा, फ़तेह खान और अन्य सिवालिक पहाड़ के राजाओ से युद्ध किया था।
युद्ध पुरे दिन चला और इस युद्ध में हजारो जाने गई। जिसमे गुरु गोबिन्द सिंह विजयी हुए। इस युद्ध का वर्णन “विचित्र नाटक” में किया गया है जोकि दशम ग्रंथ का एक भाग है।
नवम्बर 1688 में गुरु गोबिन्द सिंह आनंदपुर में लौट आए जोकि चक नानकी के नाम से प्रसिद्ध है वे बिलासपुर की रानी के बुलावे पर यहाँ आए थे।
1699 में जब सभी जमा हुए तब गुरु गोबिंद सिंह ने एक खालसा वाणी स्थापित की “वाहेगुरुजी का खालसा, वाहेगुरुजी की फ़तेह” ऊन्होने अपनी सेना को सिंह (मतलब शेर) का नाम दिया। साथ ही उन्होंने खालसा के मूल सिध्दांतो की भी स्थापना की।
‘दी फाइव के’ ये पांच मूल सिध्दांत थे जिनका खालसा पालन किया करते थे। इसमें ब़ाल भी शामिल है जिसका मतलब था बालो को न काटना। कंघा या लकड़ी का कंघा जो स्वछता का प्रतिक है, कडा या लोहे का कड़ा (कंगन जैसा), खालसा के स्वयं के बचाव का, कच्छा अथवा घुटने तक की लंबाई वाला पजामा; यह प्रतिक था। और किरपन जो सिखाता था की हर गरीब की रक्षा चाहे वो किसी भी धर्म या जाती का हो।
गुरु गोबिन्द सिंह को गुरु ग्रंथ साहिब के नाम से शोभित किया गया है क्योकि उन्होंने उनके ग्रंथ को पूरा किया था। गुरु गोबिन्द सिंह ने अपने प्राण 7 अक्टूबर 1708 को छोड़े।
गुरु गोबिंद सिंह जी की मृत्यु कब हुई थी?
मुगल बादशाह औरंगजेब की मृत्यु के बाद उसके बेटे बहादुर शाह को उत्तराधिकरी बनाया गया था। बहादुर शाह को बादशाह बनाने में गुरु गोबिंद जी ने मद्द की थी।इसकी वजह से बहादुर शाह और गुरु गोबिंद जी के बीच काफी अच्छे संबंध बन गए थे। वहीं सरहद के नवाब वजीद खां को गुरु गोविंद सिंह और बहादुर शाह की दोस्ती बिल्कुल पसंद नहीं थी, इसलिए उसने अपने दो पठानो से गुरु गोबिंद जी की हत्या की साजिश रखी और फिर 7 अक्तूबर 1708 में महाराष्ट्र के नांदेड़ साहिब में गुरु गोबिंद सिंह जी ने अपनी आखिरी सांस ली।
गुरु गोबिंद ने न सिर्फ अपने जीवन में लोगों को गरीबों की मद्द करना, जीवों पर दया करना, प्रेम-भाईचारे से रहने का उपदेश दिया बल्कि समाज और गरीब वर्ग के उत्थान के लिए कई काम किए एवं अत्याचार के खिलाफ लड़ाई की।आज भी उनके अनुयायी उनके उपदेशों का अनुसरण करते हैं, और उनके ह्दय में अपने गुरु जी के प्रति अपार प्रेम और सम्मान है।
सिख धर्म के 10वें गुरु गुरु गोविंद सिंह ने धर्म की रक्षा के लिए जो कार्य किया उसे कोई भी नहीं भूला सकता है। गुरु गोविंद सिंह जी ने इसके अलावा सिख धर्म को एक स्थापित संगत बनाया और संपूर्ण देश में गुरुओं की परंपरा को आगे बढ़ाया।
1.- पंज प्यारे >>> गुरु गोविंद सिंहजी ने ही पंज प्यारे की परंपरा की शुरुआत की थी। इसके पीछे एक बहुत ही मार्मिक कहानी है। गुरु गोविंद सिंह के समय मुगल बादशाह औरंगजेब का आतंक जारी था। उस दौर में देश और धर्म की रक्षार्थ सभी को संगठित किया जा रहा था। हजारों लोगों में से सर्वप्रथ पांच लोग अपना शीश देने के लिए सामने आए और फिर उसके बाद सभी लोग अपना शीश देने के लिए तैयार हो गए। जो पांच लोग सबसे पहले सामने आए उन्हें पंज प्यारे कहा गया।
- पंच प्यारों को अमृत चखाया : इन पंच प्यारों को गुरुजी ने अमृत (अमृत यानि पवित्र जल जो सिख धर्म धारण करने के लिए लिया जाता है) चखाया। इसके बाद इसे बाकी सभी लोगों को भी पिलाया गया। इस सभा में हर जाती और संप्रदाय के लोग मौजूद थे। सभी ने अमृत चखा और खालसा पंथ के सदस्य बन गए। अमृत चखाने की परंपरा की शुरुआत की।
3.खासला पंथ >>> पंच प्यारे के समर्पण को देखते हुए गुरुदेव ने वहां उपस्थित सिक्खों से कहा, आज से ये पांचों मेरे पंच प्यारे हैं। इनकी निष्ठा और समर्पण से खालसा पंथ का आज जन्म हुआ है। आज से यही तुम्हारे लिए शक्ति का संवाहक बनेंगे। यही ध्यान, धर्म, हिम्मत, मोक्ष और साहिब का प्रतीक भी बने। पंज प्यारे के चयन के बाद गुरुजी ने धर्मरक्षार्थ खालसा पंथ की स्थापना की थी। खालसा पंथ की स्थापना (1699) देश के चौमुखी उत्थान की व्यापक कल्पना थी। बाबा बुड्ढ़ा ने गुरु हरगोविंद को ‘मीरी’ और ‘पीरी’ दो तलवारें पहनाई थीं।
- ग्रंथ साहिब को गुरुगद्दी बख्शी >>> तख्त श्री हजूर साहिब नांदेड़ में गुरुग्रंथ को बनाया था गुरु। महाराष्ट्र के दक्षिण भाग में तेलंगाना की सीमा से लगे प्राचीन नगर नांदेड़ में तख्त श्री हजूर साहिब गोदावरी नदी के उत्तरी किनारे पर स्थित है। इस तख्त सचखंड साहिब भी कहते हैं। इसी स्थान पर गुरू गोविंद सिंह जी ने आदि ग्रंथ साहिब को गुरुगद्दी बख्शी और सन् 1708 में आप यहां पर ज्योति ज्योत में समाए। ग्रंथ साहिब को गुरुगद्दी बख्शी का अर्थ है कि अब गुरुग्रंथ साहिब भी अब से आपके गुरु हैं।
—>>> यहीं गुरु गोविंद सिंह जी ने कहा था:-
आगिआ भई अकाल की तवी चलाओ पंथ..
सब सिखन को हुकम है गुरु मानियो ग्रंथ..
गुरु ग्रंथ जी मानियो प्रगट गुरां की देह..
जो प्रभ को मिलबो चहै खोज शब्द में लेह..
5–. तख्त श्री हजूर साहिब नांदेड़ >>> महाराष्ट्र के दक्षिण भाग में तेलंगाना की सीमा से लगे प्राचीन नगर नांदेड़ में तख्त श्री हजूर साहिब गुरुद्वारा की स्थापना श्री गुरु गोविंद सिंह जी के कारण ही हुई थी। हजूर साहिब, सिखों के 5 तखतों में से एक है जिसे गुरुद्वारा सचखंड भी कहा जाता है। सन 1832 से 1837 तक पंजाब के महाराजा रणजीत सिंह के आदेश पर यहां गुरुद्वारे का निर्माण कार्य चला। यह सिक्खों का चौथा तख्त है। गुरुजी चाहते थे कि यही पर उनके सहयोगियों में से एक श्री संतोख सिंह जी नांदेड़ में ही रहकर लंगर चलाते रहे। गुरु की इच्छा के अनुसार भाई संतोख सिंह जी के अलावा अन्य अनुयायी भी वहीं रहने लगे और उन्होंने गुरु का कार्य आगे बढ़ाया।
6– अयोध्या की रक्षा की थी >>> कहते हैं कि राम जन्मभूमि की रक्षा के लिए यहां गुरु गोविंद सिंह जी ने अपनी निहंग सेना को अयोध्या भेजा था जहां उनका मुकाबला मुगलों की शाही सेना से हुआ। दोनों में भीषण युद्ध हुआ था जिसमें मुगलों की सेना को बुरी तरह से हार का सामना करना पड़ा था। उस वक्त दिल्ली और आगरा पर औरंगजेब का शासन था।
7– धर्मरक्षार्थ परिवार का बलिदान >>> गुरु गोविंदसिंह मूलतः धर्मगुरु थे, लेकिन सत्य और न्याय की रक्षा के लिए तथा धर्म की स्थापना के लिए उन्हें शस्त्र धारण करना पड़े। गुरुजी के परदादा गुरु अर्जुनदेव की शहादत, दादागुरु हरगोविंद द्वारा किए गए युद्ध, पिता गुरु तेगबहादुर की शहीदी, दो पुत्रों का चमकौर के युद्ध में शहीद होना, आतंकी शक्तियों द्वारा दो पुत्रों को जिंदा दीवार में चुनवा दिया जाना, वीरता व बलिदान की विलक्षण मिसालें हैं। गुरु गोविंदसिंह इस सारे घटनाक्रम में भी अडिग रहकर संघर्षरत रहे, यह कोई सामान्य बात नहीं है।
8.– दसम ग्रंथ की रचना >>>
इसकी रचना गुरु गोविन्द सिंह द्वारा की गई थी। यह पूर्ण रूप में दसवें पादशाह का ग्रंथ हैं। यह प्रसिद्ध ग्रंथ ब्रजभाषा, हिन्दी, फ़ारसी और पंजाबी में लिखे भजनों, दार्शनिक लेखों, हिन्दू कथाओं, जीवनियों और कहानियों का संकलन है। जफरनामा अर्थात ‘विजय पत्र’ गुरु गोविंद सिंह द्वारा मुग़ल शासक औरंगज़ेब को लिखा गया था। ज़फ़रनामा, दसम ग्रंथ का एक भाग है और इसकी भाषा फ़ारसी है। इसके अलावा भी उन्होंने और कई ग्रंथ लिखे थे।
9.– 14 युद्ध लड़े >>> कहते हैं कि उन्होंने मुगलों या उनके सहयोगियों के साथ लगभग 14 युद्ध लड़े थे। इसीलिए उन्हें ‘संत सिपाही’ भी कहा जाता था। वे भक्ति तथा शक्ति के अद्वितीय संगम थे।
10–. 52 कवि उनके दरबार में 52 कवियों तथा लेखकों की उपस्थिति रहती थी।
संक्षिप्त विवरण<<<<
नाम – गुरु गोविन्द सिंह जी
असली नाम – गोविन्द राय
जन्म – 22 दिसंबर 1666,
स्थान – पटना सिटी
मृत्यु – 7 अक्तूबर 1708
मृत्यु की स्थान – हजुर अबचल नगर साहिब, नांदेड
पत्नी- माता साहिब कौर (विवा. 1700), और जीतो
पिता का नाम – गुरु तेग बहादुर
माता – सुंदरी (विवा. 1677)
बच्चे- साहिबज़ादा अजीत सिंह, साहिबज़ादा ज़ोरावर सिंह, ज़्यादा
गुरु में पद- 10वें गुरु थे !