Biography of Chapekar Bandhu

चापेकर बंधु का जीवन परिचय <<<

सन् 1896-1897 में पुणे में प्लेग की बीमारी फैली । यह रोग बहुत तेजी से फैलता है और लोग मरने लगते हैं चिकित्सा के साथ-साथ घर – बाहर की सफाई आदि के कार्य बहुत जल्दी करने आवश्यक होते हैं ! सरकार ने पुणे में फैले इस प्लेग की बीमारी की रोकथाम के लिए एक अंग्रेज अधिकारी ब्लाडर चार्ल्स रैंड की नियुक्ति की । वे प्लेग कमिश्नर बनाए गए । उन्होंने पुलिस की सहायता से घरों की सफाई, रोगियों का पता लगाने तथा उनके उपचारों की व्यवस्था करने के नाम पर घरों में घुसकर सामान लूटने, महिलाओं ,वृद्धों का अपमान करने एवं युवकों की पिटाई करने के कार्य करने आराम कर दिए यह देखकर दामोदर चापेकर एवं बालकृष्ण चापेकर नाम के दो भाइयों ने रैंड के अत्याचारों से जनता को मुक्त कराने के लिए उसको समाप्त करने का निर्णय लिया । उसके विषय में पूरी जानकारी एकत्र की एक दिन दोनों भाइयों ने क्लब से बाहर आते समय ग्रैंड को गोली मार दी दोनों पुलिस द्वारा पकड़ लिए गए इसके इनके तीसरे भाई वासुदेव चापेकर तथा उनके साथी महादेव रानाडे ने कोर्ट में ही सरकारी गवाह को गोली मार दी ।इनको भी पकड़ लिया गया तीनों चापेकर बंधु दो तथा रानाडे को फांसी दे दी गई। चापेकर बंधुओं की वीरता पूर्ण बलिदान ने युवकों को देश के लिए प्राण न्योछावर कर देने की प्रेरणा दी ।

प्रारंभिक जीवन <<<

दामोदर हरी चापेकर का जन्म 24 जून, 1869 को महाराष्ट्र के पुणे में हुआ. उनके पिताजी का नाम हरिपंत चापेकर था. माता-पिता के वे ज्येष्ठ पुत्र थे. उन्हें दो भाई थे जिनका नाम बालकृष्ण चापेकर और वासुदेव चापेकर था. महाराष्ट्रियन संस्कृति में पले-बढे दामोदर बचपन से भजन-कीर्तनों में रूचि रखते थे. बचपन से उन्हें सैनिक बनकर देश की सेवा करने की इच्छा थी.

महर्षि पटवर्धन और लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक को वे अपना आदर्श मानते थे. दामोदर चापेकर और उनके भाई तिलक जी को गुरुवत सम्मान देते थे. बचपन से दामोदर जी को गायन के साथ काव्यपाठ और व्यायाम का भी बहुत शौक था. उनके घर में लोकमान्य तिलक का ‘केसरी’ नामक समाचार पत्र आता था. यह समाचार पात्र दामोदर जी के घर में और अड़ोस पड़ोस के सब लोग पढ़ा करते थे.

सन 1897 में पुणे नगर प्लेग की भयानक बिमारी के जपेट में था. सरकार ने पुणे वासियों को पुणे छोड़ने की आज्ञा दी, जिससे लोगों में बड़ी अशांति पैदा हो गई. लोगो ने शहर न छोड़ने पर सरकार ने खुप दबाव डालना शुरू किया. इसमें अंग्रेज़ अधिकारी वाल्टर चार्ल्स रैण्ड और आयर्स्ट बड़ा सहयोग था. लोगों पर खुप अत्याचार होने लगे थे. इसका तिलक और आगरकर जी ने खुप विरोध किया. परिणामतः उन्हें जेल भेजा गया. इस घटना से दामोदर चापेकर के मन में अंग्रेजो की हुकमी सरकार के विरुद्ध द्वेष पैदा हुआ.

योगदान <<<

प्लेग के बीमारी के दौरान एक दिन तिलक जी ने चाफेकर बन्धुओं से कहा, “शिवाजी ने अपने समय में अत्याचार का विरोध किया था, किन्तु इस समय अंग्रेजों के अत्याचार के विरोध में तुम लोग क्या कर रहे हो?”. यह सुनकर चापेकर बंधुओं को बहुत बुरा लगा और इसके बाद इन तीनों भाइयों ने क्रान्ति का मार्ग अपना लिया.

22 जून 1897 को पुणे के “गवर्नमेन्ट हाउस’ में एक कार्यक्रम मनाया जाने वाला था. दामोदर चापेकर और उनके भाई बालकृष्ण चापेकर भी एक दोस्त विनायक रानडे के साथ वहां पहुंच गए और अंग्रेज अधिकारियों के निकलने की प्रतीक्षा करने लगे. रात में 12 बजकर 10 मिनट पर अंग्रेज़ अधिकारी रैण्ड और आयर्स्ट निकले और अपनी-अपनी बग्घी पर सवार होकर चल पड़े. योजना के अनुसार दामोदर हरि चाफेकर रैण्ड की बग्घी के पीछे चढ़ गए और उसे गोली मार दी. और बालकृष्ण जी ने भी आर्यस्ट पर गोली चला दी. इसके बाद पुणे में चापेकर बंधुओ की जयजयकार हुई.

इस घटना के बाद दामोदर चापेकर, उनके भाई बालकृष्ण और दोस्त विनायक रानडे फरार हो गए. उन्हें ढूंढ़ने केलिए अंग्रेज सरकार ब्रुइन द्वारा २० हजार रुपए का इनाम रखा गया. चापेकर बंधू की इस तरतूद को जानने वाले और दो लोग थे शंकर द्रविड़ और रामचन्द्र द्रविड़. इन्होने लालच में आकर ब्रुइन को लापता चापेकर का सुराग दिया. इसके बाद दामोदर चापेकर को पकड़ लिया गया लेकिन, उनके भाई बालकृष्ण चापेकर पुलिस के हाथ नहीं लगे. कोर्ट ने उन्हें मृत्युदंड की सजा सुनवाई. कारागृह में तिलक जी ने उनसे भेंट की और उन्हें “गीता’ प्रदान की. और 18 अप्रैल 1898 को “गीता” पढ़ते पढ़ते दामोदर जी फांसीघर पहुंचे और फांसी के फंदे से जा लटके. इसके बाद उनके भाई बालकृष्ण चापेकर खुद पुलिस के पास गए और गिरफ्तार हो गए.

चापेकर बंधु कौन थे <<<

श्यामजी मुंबई में रहते क्रांतिकारी विचारधारा का खुलकर प्रचार करते थे। 1897 में नाटू बंधु गिरफ्तार हो गए। लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक पर पुणे के आततायी प्लेग कमिश्नर की हत्या करने वाले चाफेकर बंधुओं को अंग्रेज अफसर रैंड की हत्या के लिए भड़काने के लिए मुकदमा चला।

चापेकर बन्धुओं का जन्म चित्पावन ब्राह्मण परिवार में हुआ था। पूना के क्षेत्र में इन ब्राह्मणों की अच्छी साख गिनी जाती थी। इसी कारणवश ब्रिटिश सरकार की शासकीय सेवा में कुछ लोगों ने सरलता से नौकरियाँ भी प्राप्त कर ली थीं।

एक सम्पन्न चित्पावन ब्राह्मण परिवार के घर में दामोदर पन्त चापेकर बालकृष्ण चापेकर और वासुदेवराव चापेकर नामक तीन सुपुत्रों ने जन्म लिया। तीनों सहोदर भाइयों का बाल्यकाल और किशोरावस्था बड़े सुख-चैन और मस्ती भरे वातावरण में व्यतीत हुई और तीनों का विवाह अच्छे खाते-पीते घरानों में सम्पन्न हुआ था।

माँ-बाप के निरन्तर स्नेहिल वातावरण से किसी प्रकार का अभाव उनके जीवन को छू भी न पाया था किन्तु अंग्रेजों की क्रूरता, नीचता और विश्वासघाती घातों ने चापेकर बन्धुओं के नये खून में विद्रोह की ज्वाला भड़का डाली थी।

ब्रिटिश शासन में अत्याचार, अनाचार, बलात्कार, कपट और भेदभाव की उग्रता से भारतीयों के मन में घृणा और भय विद्यमान हो गया था। वे असन्तोष की आग में जले जा रहे थे। नया खून अत्याचार, अनाचार को सहन नहीं करता अतः तीनों सहोदर नित्य अपनी आँखों में विद्रोही तेवर लिये अंग्रेजों को सबक देने की योजना बनाते जिससे उन्हें मुँह तोड़ उत्तर दिया जा सके।

रामकृष्ण परमहंस, स्वामी दयानन्द स्वामी विवेकानन्द महान आत्माओं के उपदेशों ने मन जागृति अंकुर प्रस्फुटित कर दिये थे। उन्होंने अनुभव दिया था कि भारतीय संस्कृति विश्व की अन्य संस्कृतियों तुलना में कैसे भी नीची नहीं लोगों यदि मनोबल ऊँचा हो बड़ी-से-बड़ी शक्ति से लोहा सकते हैं।

वास्तव में भारत महान है, जहाँ के लोग सरल धार्मिक प्रवृत्ति के होने के कारण निरीश्वरवादी नहीं उनके मन में दया निष्ठा है, आस्था है। उनकी दुर्बलता आपसी फूट कारण ही आर्थिक शोषण होता है, उनकी सामाजिक कुप्रथाएँ उनकी प्रगति बाधक हैं।

चापेकर बन्धुओ का क्रांतिकारी कदम <<<

19वीं शताब्दी के अन्तिम दशक की दो महत्त्वपूर्ण रोमांचकारी घटनाओं ने शस्त्रक्रान्ति के इतिहास में अपना विशेष स्थान बनाया है-पहला चापेकर बन्धुओं का बलिदान और दूसरा पंजाबी नवयुवक मदनलाल धींगड़ा का बलिदान।

भारत में क्रान्तिकारी स्वाधीनता संग्राम का श्रीगणेश इतनी प्रखरता, तीव्रता और धूमधाम से हुआ जिसकी त्यागमयी निष्ठा का अभूतपूर्व प्रदर्शन संसार में अन्यत्र कहीं भी मिल पाना कठिन है। चापेकर बन्धु कौन थे

1857 के असफल विद्रोह की आग धूमिल चिनगारी के रूप में दबी सुलगना चाहती थी। वे आपस में एक ही धारणा पर चर्चा करते कि ये अंग्रेज बनिये बनकर व्यापार के बहाने भारत में घुसे, भारतीय सम्राटों के सम्मुख नतमस्तक हो सलाम मारते, अपने अतीत भूलकर वर्तमान की सुनहली धूप में अपने छल-कपट से भारत के शासक बन बैठे।

अंग्रेज अपने को सुसंस्कृत, सभ्य और समझदार मानता है, हमारी सभ्यता संस्कृति, रीति-रिवाजों को असभ्यता की तराजू पर तोल हमें जंगली एवं बर्बर करार देता है। इन्हें सबक सीखना ही होगा, विदेशियों को भारत से बाहर खदेड़ने के अलावा कोई और मार्ग सम्भव ही नहीं है।

आज जिस हुकूमत की जड़ें वे सुदृढ़ और मजबूत मानने लगे हैं उन्हें भारतीय युवकों का ‘संगठित दल’ अखंड भारत से उखाड़कर सात समुद्र पार फेंकने में सक्षम है। बड़े भाई दामोदर पन्त ने फौज में प्रवेश करने का निश्चय किया।

भाग-दौड़ काफी की मगर वह अंग्रेजी रंगरूटों की आँखों को धोखा नहीं दे पाया। उसका प्रयत्न असफल हो गया। फौज में भरती का स्वप्न बिखर गया मगर चापेकर बन्धुओं ने निराश हो हाथ पर हाथ रख बैठना सीखा न था।

उन्होंने ‘आर्यधर्म प्रतिबन्ध निवारक मंडली’ नामक संस्था स्थापित कर डाली। इस संस्था का लक्ष्य था अंग्रेजों के विरुद्ध भारतीय जनता में जागरूकता और क्रान्तिकारी संघर्ष के विषय में सफल योजना बनाना। इस संगठन ने थोड़े समय में ही आशा से अधिक सफल मार्ग प्रदर्शन करना प्रारम्भ कर दिया।

जनता की आँखें खुल गयीं, उन्होंने अनुभव किया कि अंग्रेजों का विरोध केवल एकता और शक्तिशाली संगठन के माध्यम से सम्भव है। अंग्रेज कपटी हैं, छल उनका अमोघ अस्त्र है मगर ये बनिये डरपोक भी हैं। ईंट का उत्तर पत्थर से देकर ही इनको भारत से खदेड़ना सम्भव है।

इसी प्रकार दूसरी रोमांचकारी घटना पंजाबी नवयुवक मदन लाल धींगड़ा की है जो एक सम्पन्न परिवार में उत्पन्न हुआ, लालन-पालन बड़े चाव से किया गया। बी. ए. की परीक्षा निर्भीकता के साथ समाप्त करने के उपरान्त वह विशेष अध्ययन के लिए इंग्लैंड पहुँच जाता है।

बंगाल प्रान्त में अंग्रेजों के विरुद्ध नवयुवकों का आक्रोश फूट पड़ा था। विदेशी हुकूमत के खिलाफ बगावत का झण्डा बंगाली युवकों के हाथों में फहरा रहा था। नया खून अपनी पूरी बुलन्दी से गोरी सरकार को नाकों चने चबवाने में प्रयत्नशील थे। वे मातृभूमि से अंग्रेजों का बिलकुल सफाया करने के लिए कई गुप्त संगठनों में कार्यरत थे।

इसी हलचल में लन्दन भी अछूता न बचा था। जो भारतीय किसी साधन से विदेश पहुँचते वे एकत्रित होते ही संगठित रूप से अंग्रेजी दासता से भारत को मुक्त कराने की योजना में जुट पड़ते थे। ऐसे सुपरिचित नामों में एक मदन लाल धींगड़ा भी थे।

इंग्लैंड में उन दिनों एक गुप्तचर कर्जन वाइली का नाम बड़ा चमक रहा था। वह बड़ी होशियारी से लन्दन में आने-जानेवाले भारतीयों पर निगरानी रखने में बड़ा प्रवीण था। वह प्रायः सभी मनोरंजक स्थलों, सैरगाहों और सभा मंचों में भाग लेकर गुप्त सूचनाएँ एकत्रित करने में अपनी सानी न रखता। उसकी नजर अचानक मदन लाल धींगड़ा पर पड़ी तो उसने पीछा करना प्रारम्भ कर दिया।

छात्रों की गतिविधियों पर अंकुश रखने में प्रवीण वाइली अपनी योजना के तहत सरगर्मी से कार्यरत हो धींगड़ा के निकटतम सर्किल में प्रवेश कर गया। उसे यह भी जानकारी मिल गयी कि मदन लाल धींगड़ा नामक छात्र एक बलिष्ठ एवं निर्भीक भारतीय है जो प्रायः अन्य छात्रों की अपेक्षा शान्त और गम्भीर मुद्रा में नित्य प्रति खोया खोया दृष्टिगोचर होता है।

उसकी विदेश यात्रा साधारण अध्ययन नहीं चूँकि वह प्रान्त की बस्तियों में अनेकों भारतीयों के सम्पर्क में पहुँच गुप्त सभाएँ भी आयोजित करने की अभिरुचि रखता है। लंदन की खुफिया तन्त्र सचेत हो सक्रियता से उसकी गतिविधियों पर नजर रखने लगा।

सर कर्जन वाइली का सन्देहास्पद चेहरा भी मदन लाल धींगड़ा की आँखों में पहले ही नाच गया था। दोनों पक्ष एक-दूसरे से सावधान अपनी-अपनी चालों के मोहरे बिछाने में जुटे थे। धींगड़ा ने निडरता से अपना कार्य जारी रखा, वह जल्दबाजी में किसी अनहोनी को स्वयं न्यौता पहले नहीं देना चाहता था।

एक दिन खुली सभा में मदन लाल धींगड़ा ने सर कर्जन वाइली को जब अपनी गोली का निशाना बनाया तो भीड़ में भगदड़ मच गयी। इस प्रकार इस नवयुवक ने बड़ी सकर्तता और वीरता का परिचय देते हुए अपनी मातृभूमि के अपमान का बदला उनके देश की धरती पर खून के बदले खून बहाकर ले लिया।

ब्रिटिश हुकूमत को इससे बड़ी चुनौती और क्या दी जा सकती थी? मदन लाल धींगड़ा पर मुदकमे का नाटक रचाया गया। धींगड़ा ने बड़े साहस और उत्तेजना-भरे स्वरों में अदालत में सिंह गर्जना की- ‘मैंने सचमुच सर कर्जन वाइली पर गोली चलाकर उसकी हत्या की है, मुझे इसका दुःख नहीं प्रसन्नता और गर्व अनुभव रहा है।

मेरी तो परमात्मा से एकमात्र यही कामना है कि जब तक भारत ब्रिटिश शासन से मुक्त हो विजयी नहीं होता मैं बारम्बार उसी माँ के गर्भ से पैदा हो-होकर अपने पवित्र उद्देश्य की पूर्ति के लिए निरन्तर अपने प्राणों की आहुति देता चला जाऊँ।

यह क्रान्तिकारी अमर वीर मदन लाल धींगड़ा 16 अगस्त, 1906 को हँसते-हँसते फाँसी के फन्दे को चूमकर इतिहास के पृष्ठों पर अपना हस्ताक्षर चापेकर बन्धुओं के हृदय में सुलगती चिनगारी आग के भयंकर शोलों में परिवर्तित हो गयी। एक देशभक्त के लिए जीवन में इससे बड़ी चुनौती और क्या हो सकती है?

उन्होंने परिवार, माँ-बाप, बाल-बच्चे और सुखमय जीवन के मोहक सपनों को धूलि धूसरित कर अंग्रेज अफसर से बदला लेने का तत्काल निश्चय कर डाला। योजना को मूर्त रूप देने के लिए समय की प्रतीक्षित अवधि में ही पूरे प्रारूप पर तीनों भाइयों ने सावधानी से विचार-विमर्श कर लिया। दामोदर चापेकर का खून खौलने लगा था।

अंग्रेज सैनिकों के साथ घरों में घुसकर जो छेड़खानी कर नारियों के साथ बलात्कार करे, उनकी इज्जत लूटे, धन-सम्पदा छीने-ऐसे वाल्टर चार्ल्स रैण्ड के दुराचरणों को आखिर किस सीमा तक सहन किया जा सकता था? पाप का घड़ा भर गया, लोगों के धैर्य की सीमा टूट चुकी-तभी जनता की नम आँखें चापेकर बन्धुओं पर आ टिकी थी।

महारानी विक्टोरिया की हीरक जयन्ती मनाने के लिए योजना का प्रारूप तय हुआ। सरकारी व्यवस्था बड़ी धूम-धाम से जश्न मनाने में जुट गयी। 22 जून की रात को पूरे शहर को रोशनी से लाद दिया गया, सारा पूना नयी नवेली दुलहिन के समान सुसज्जित खड़ा जैसे मुस्करा रहा था। दामोदर चापेकर ने अपने दोनों छोटे भाइयों सहित प्रिय मित्र महादेव विनायक रानाडे को भी अपने साथ ले लिया।

योजना के अनुरूप सभी मंच के निश्चित स्थलों पर वे अपने-अपने स्थानों पर पहुँच गये। जब हीरक जयन्ती का जश्न अपनी पूरी तरुणाई की चरम सीमा को छूने लगा तो दामोदर चापेकर ने अपने रिवाल्वर से वाल्टर चार्ल्स रैण्ड को गोली का निशाना बना दिया। रैण्ड के साथ ही एक अंग्रेज अपर्स्ट नामक लेफ्टीनेंट भी गोली खाकर धराशायी हो गया।

महारानी विक्टोरिया की हीरक जयन्ती का जश्न मातमी भगदड़ में बदल गया। जिसका जिधर भी मुँह उठा उधर ही जान बचाने के लिए भाग छूटा। उस भगदड़ में दामोदर चापेकर के दोनों भाई बालकृष्ण व वासुदेव चापेकर एवं महादेव रानाडे बड़ी चतुराई और सावधानी से दुर्घटना स्थल से साफ निकल भागे।

अंग्रेज अफसरों द्वारा किये गये तमाम सुरक्षा व्यवस्था के कवच तोड़ क्रान्तिकारी किशोरों ने रैण्ड और लेफ्टीनेंट की हत्या कर उनके दानवी आचरण का बदला ले लिया था। उन्होंने विदेशी हुक्मरानों को चेतावनी दे दी थी कि आग से न खेलो, अब खून का बदला खून से लेंगे।

पुलिस ने काफी भाग-दौड़ की छापे मारे, निर्दोष लोगों को पकड़ जेलखाने में बन्द किया मगर चापेकर बन्धुओं का बाल भी बाँका न हुआ। वे निरन्तर पुलिस की आँखों में धूल झोंकते रहे। जगह-जगह पर खुफिया तन्त्र फैला दिया गया मगर सब बेकार।

अचानक एक दिन बेविन नामक जासूस ने रामा पांडु नाम के सिपाही को फुसला लिया। उसने हत्याकांड का सुराग देते हुए गणेश शंकर द्रविड़ और नीलकंठ द्रविड़ को दोनों नाम-पते बता उनसे सम्पर्क सधवाया। चापेकर बन्धु कौन थे

नीलकंठ और गणेश शंकर द्रविड़ सहोदर भाई थे। जिन्होंने लालचवश सम्पूर्ण जानकारी खुफिया अफसर बेबिन को देकर विश्वासघात किया दामोदर पन्त चापेकर को बम्बई में गिरफ्तार कर लिया गया। मुकदमा चलाया गया।

अदालत में दामोदर पन्त चापेकर ने बड़ी निडरता से स्वीकार किया कि उसने ही वाल्टर चार्ल्स रैण्ड को गोली मारकर हत्या की है।… रैण्ड ने भारतीय निरपराध लोगों को अपनी दुष्प्रवृत्तियों का शिकार बनाया था अतः उसकी हत्या करना कोई अपराध नहीं है।’

मुकदमे के नाटक के अन्त में दामोदर पन्त चापेकर को फाँसी की सजा सुनायी गयी जिसके परिणामस्वरूप उन्हें 18 अप्रैल, 1898 को यरवदा जेल में फाँसी पर चढ़ा दिया गया। दामोदर पन्त ने फाँसी का फन्दा बड़ी निर्भीकता से चूमकर इस नश्वर संसार को छोड़ अमरत्व प्राप्त कर लिया।

इस असहनीय पीड़ा को मझले भाई बालकृष्ण चापेकर अधिक समय तक सहन नहीं कर सके। ऐसे संकट के समय भी दोनों चापेकर बन्धु आर्यधर्म प्रतिबन्ध निवारक मंडली’ का कार्य यथावत गुप्त रूप से चलाते रहे और संगठन की एकता के लिए नित्य प्रति तन, मन, धन से जुटे रहे।

अन्त में दिसम्बर 1898 के एक दिन बालकृष्ण चापेकर ने स्वेच्छा से ही आत्म-समर्पण कर दिया। निश्चित था उन पर भी मुकदमा चलाया जाये। कनिष्ठ भाई वासुदेव का हृदय अशान्त हो उठा। इस पीड़ा ने नाना प्रकार के विचारों ने मस्तिष्क के केन्द्र में हलचल पैदा कर तूफान उठा डाला।

बड़े भाई फाँसी पर चढ़कर शहीद हो चुके, मझले भाई ने जान-बूझकर शहीद होने की दिशा में चरण बढ़ाने शुरू कर दिये हैं। ऐसी स्थिति में अब एक ही रास्ता है कि भाई के गद्दार साथियों को जिनके विश्वासघात के कारण उन्हें फाँसी का फन्दा चूमने के लिए विवश होना पड़ा मौत के घाट पहले ही उतार दिया जाये।

अपराध का दंड यदि जयचन्दों को देना ही श्रेयष्कर है तो क्यों न मझले भाई.. जीवित रहते ही अपराधियों को सजा दे दी जाये ? ” बालकृष्ण के वासुदेव चापेकर ने योजना के प्रारूप पर अपने अभिन्न विश्वसनीय सहयोगी महादेव विनायक रानाडे व खंडेराव साठे से बड़ी गम्भीरता से विचार-विमर्श कर निश्चित निर्णय ले लिया।

एक दिन बड़े भाई दामोदर पन्त चापेकर के मुखबिर सर्वश्री गणेश शंकर द्रविड़ एवं नीलकंठ द्रविड़ बन्धुओं को महादेव रानाडे और खंडेराव ने निश्चित स्थान पर बुलाने में सफल हो गये। वासुदेव चापेकर ने ऐसे स्वर्णिम सुअवसर का लाभ उठाते हुए अपनी पिस्तौल से दोनों भाइयों को गोली का निशाना बना डाला। खून की प्यास अभी बुझी न थी।

पिस्तौल से शेष दो मुखबिर और उड़ाने थे। इसी प्रकार ब्रेविन जासूस और कान्स्टेबल रामा पांडु को मारने के लिए ज्यों ही पिस्तौल की गोलियों ने आग उगली अचानक दुर्भाग्य से निशाना चूक गया।

ब्रेविन और रामा पांडु बाल-बाल बच गये। योजना विफल हो गयी। सभी पर मुकदमा चलाने का नाटक रचाया गया। अदालत में बालकृष्ण चापेकर, वासुदेव चापेकर और रानाडे को फाँसी की सजा सुनायी गयी।

इस कांड के सह-अभियुक्त श्री साठे को 10 वर्ष के कठोर कारावास का दंड दिया गया। अपनी-अपनी सजाएँ सुन सभी क्रान्तिकारियों में उत्साह था, निडरता थी, चेहरे पर मुस्कान भरा तेज देदीप्यमान था।

इस प्रकार 8 मई, 1899 को वासुदेव राव, 10 मई को रानाडे और 12 मई बालकृष्ण ‘चापेकर को यरवदा जेल में ही फाँसी पर लटका दिया गया। चापेकर को बन्धुओं ने आजादी की लड़ाई में शहीद होकर देश के नवयुवकों के हृदय में अभूतपूर्व स्थान बना डाला जिनके पदचिह्नों पर चलनेवाले अपना बलिदान देकर भविष्य में अमर होते चले गये।

चाफेकर बंधु का इतिहास <<<

दामोदर पंत चाफेकर का जन्म 25 जून 1869 को पुणे के ग्राम चिंचवड़ में प्रसिद्ध कीर्तनकार हरिपंत चाफेकर के ज्येष्ठ पुत्र के रूप में हुआ था। उनके दो छोटे भाई क्रमशः बालकृष्ण चाफेकर एवं वसुदेव चाफेकर थे। बचपन से ही सैनिक बनने की इच्छा दामोदर पंत के मन में थी, विरासत में कीर्तनकार का यश-ज्ञान मिला ही था।

भारत के प्रथम क्रांतिकारी संगठन की स्थापना चापेकर बंधुओं द्वारा की गई थी<<<

नोट- 1896 में गुना में चापेकर बंधुओं ने “व्यायाम मंडल” की स्थापना की थी। ० मित्रमेला- महाराष्ट्र में 1899 में इस संगठन स्थापना की गई।

चापेकर बंधु की हत्या <<<

दामोदर हरि चाफेकर ने २२ जून १८९७ को रैंड को और उसके सहायक लेफ्टिनेंट आयस्टर को गोली मारकर हत्या कर दी। यह भारत की आज़ादी की लड़ाई में प्रथम क्रांतिकारी धमाका था। रैण्ड ने प्लेग समिति के प्रमुख के रूप में पुणे में भारतीयों पर बहुत अत्याचार किए थे।

दामोदर चापेकर <<<

भारत की आज़ादी की लड़ाई में प्रथम क्रांतिकारी धमाका करने वाले वीर दामोदर हरी चापेकर का जन्म 24 जून, 1869 को महाराष्ट्र में पुणे के ग्राम चिंचवाड़ में प्रसिद्ध कीर्तनकार हरिपंत चापेकर के ज्येष्ठ पुत्र के रूप में हुआ था। बचपन से ही सैनिक बनने की इच्छा दामोदर हरी चापेकर के मन में थी।

चाफेकर बन्धु द्वारा देशद्रोही मुखबिरों का वध / 8 फरवरी, 1899 <<<

देश की स्वाधीनता के लिए जिसने भी त्याग और बलिदान दिया, वह धन्य है; पर जिस घर के सब सदस्य फांसी चढ़ गये, वह परिवार सदा के लिए पूज्य है। चाफेकर बन्धुओं का परिवार ऐसा ही था।

1897 में पुणे में भयंकर प्लेग फैल गया। इस बीमारी को नष्ट करने के बहाने से वहां का प्लेग कमिश्नर सर वाल्टर चार्ल्स रैण्ड मनमानी करने लगा। उसके अत्याचारों से पूरा नगर त्रस्त था। वह जूतों समेत रसोई और देवस्थान में घुस जाता था। उसके अत्याचारों से मुक्ति दिलाने के लिए चाफेकर बन्धु दामोदर एवं बालकृष्ण ने 22 जून, 1897 को उसका वध कर दिया।

इस योजना में उनके दो मित्र गणेश शंकर और रामचंद्र द्रविड़ भी शामिल थे। ये दोनों सगे भाई थे; पर जब पुलिस ने रैण्ड के हत्यारों के लिए 20,000 रु. पुरस्कार की घोषणा की, तो इन दोनों ने मुखबिरी कर दामोदर हरि चाफेकर को पकड़वा दिया, जिसे 18 अपै्रल, 1898 को फांसी दे गयी। बालकृष्ण की तलाश में पुलिस निरपराध लोगों को परेशान करने लगी। यह देखकर उसने आत्मसमर्पण कर दिया।

इनका एक तीसरा भाई वासुदेव भी था। वह समझ गया कि अब बालकृष्ण को भी फांसी दी जाएगी। ऐसे में उसका मन भी केसरिया बाना पहनने को मचलने लगा। उसने मां से अपने बड़े भाइयों की तरह ही बलिपथ पर जाने की आज्ञा मांगी। वीर माता ने अश्रुपूरित नेत्रों से उसे छाती से लगाया और उसके सिर पर आशीर्वाद का हाथ रख दिया।

अब वासुदेव और उसके मित्र महादेव रानडे ने दोनों द्रविड़ बंधुओं को उनके पाप की सजा देने का निश्चय किया। द्रविड़ बन्धु पुरस्कार की राशि पाकर खाने-पीने में मस्त थे। आठ फरवरी, 1899 को वासुदेव तथा महादेव पंजाबी वेश पहन कर रात में उनके घर जा पहुंचे। वे दोनों अपने मित्रों के साथ ताश खेल रहे थे। नीचे से ही वासुदेव ने पंजाबी लहजे में उर्दू शब्दों का प्रयोग करते हुए कहा कि तुम दोनों को बु्रइन साहब थाने में बुला रहे हैं।

थाने से प्रायः इन दोनों को बुलावा आता रहता था। अतः उन्हें कोई शक नहीं हुआ और वे खेल समाप्त कर थाने की ओर चल दिये। मार्ग में वासुदेव और महादेव उनकी प्रतीक्षा में थे। निकट आते ही उनकी पिस्तौलें गरज उठीं। गणेश की मृत्यु घटनास्थल पर ही हो गयी और रामचंद्र चिकित्सालय में जाकर मरा। इस प्रकार दोनों को देशद्रोह का समुचित पुरस्कार मिल गया।

पुलिस ने शीघ्रता से जाल बिछाकर दोनों को पकड़ लिया। वासुदेव को तो अपने भाइयों को पकड़वाने वाले गद्दारों से बदला लेना था। अतः उसके मन में कोई भय नहीं था। अब बालकृष्ण के साथ ही इन दोनों पर भी मुकदमा चलाया गया। न्यायालय ने वासुदेव, महादेव और बालकृष्ण की फांसी के लिए क्रमशः आठ, दस और बारह मई, 1899 की तिथियां निश्चित कर दीं।

आठ मई को प्रातः जब वासुदेव फांसी के तख्ते की ओर जा रहा था, तो मार्ग में वह कोठरी भी पड़ती थी, जिसमें उसका बड़ा भाई बालकृष्ण बंद था। वासुदेव ने जोर से आवाज लगाई, ‘‘भैया, अलविदा। मैं जा रहा हूं।’’ बालकृष्ण ने भी उतने ही उत्साह से उत्तर दिया, ‘‘हिम्मत से काम लेना। मैं बहुत शीघ्र ही आकर तुमसे मिलूंगा।’’

इस प्रकार तीनों चाफेकर बन्धु मातृभूमि की बलिवेदी पर चढ़ गये। इससे प्रेरित होकर 16 वर्षीय किशोर विनायक दामोदर सावरकर ने एक मार्मिक कविता लिखी और उसे बार-बार पढ़कर सारी रात रोते रहे।

चाफेकर बंधुओं को किसकी हत्या के आरोप फांसी दी गई <<<

दामोदर हरि चाफेकर ने २२ जून १८९७ को रैंड को और उसके सहायक लेफ्टिनेंट आयस्टर को गोली मारकर हत्या कर दी। यह भारत की आज़ादी की लड़ाई में प्रथम क्रांतिकारी धमाका था।

तारीख थी 22 जून, 1897 और समय था मध्य रात्रि का। अंग्रेजों द्वारा अधिकृत पुणे के गवर्नमेंट हाउस (अभी सावित्री बाई फुले, पुणे विश्वविद्यालय की बिल्डिंग) में महारानी विक्टोरिया की हीरक जयंती का जश्न अभी समाप्त ही हुआ था।

हाल ही में पुणे की स्पेशल प्लेग कमेटी (SPC) के अध्यक्ष के रूप में नियुक्त किए गए वाल्टर चार्ल्स रैंड अपने तांगे पर सवार हो कर जा रहे थे। पीछे इनके सैन्य अनुरक्षक लेफ्टिनेंट आयेर्स्ट अपने तांगे में चल रहे थे। दोनों ब्रिटिश अफसर जश्न से लौट कर अपने क्वार्टर में आराम करने जा रहे थे। ये दोनों इस बात से अनजान थे कि असल में वे अपनी मौत का सफ़र तय कर रहे थे।

दामोदर, बालकृष्ण और वासुदेव – चापेकर भाई, गणेश खिंड रोड (अभी पुणे का सेनापति बापट रोड) पर हाथों में बंदूक और तलवार लिए अंधेरे में छुप कर इनका इंतज़ार कर रहे थे। जैसे ही तांगा वहाँ से गुज़रा, सबसे बड़े भाई दामोदर ने उसका पीछा शुरू किया और तांगे के पीले बंगले पर पहुँचते ही उन्होंने ज़ोर से आवाज़ लगाई – “गोंडया आला रे आला “!

जैसे ही बालकृष्ण ने यह सुना, उन्होंने तांगे का पीछा कर गोली चला दी, पर दुर्भाग्य से उस तांगे पर रैंड नहीं, आयेर्स्ट था। दामोदर और बालकृष्ण ने अपनी गलती समझ ली, पर शांत रहे। सबसे छोटा भाई वासुदेव अब भी रैंड के तांगे के पीछे भाग रहा था। दामोदर ने भी तांगे का पीछा किया और रैंड को गोली मार दी। रैंड एक ऐसा अफसर था, जिसने पुणे के प्लेग पीड़ितों को राहत देने के बजाय उनका अपमान किया था।

1896 में महाराष्ट्र में प्लेग की जानलेवा बीमारी फैली। शुरुआत में तटीय इलाके इससे प्रभावित हुए। मुंबई के नज़दीक होने के कारण पुणे में जल्द ही इस बीमारी का प्रकोप बढ़ गया। जनवरी, 1897 तक यह बीमारी एक महामारी का रूप ले चुकी थी।

एक महीने के अंदर पुणे की जनसंख्या का क़रीब 0.6% हिस्सा इस बीमारी की चपेट में आ चुका था। शहर की क़रीब आधी आबादी भाग चुकी थी।

उसी समय ब्रिटिश सरकार ने इस बीमारी को फैलने से रोकने के लिए कुछ ठोस कदम उठाने का विचार किया। उन्होंने एक एसपीसी (SPC) का गठन किया और रैंड को पुणे की समिति का आयुक्त बनाया। जून 1897 में न्यूयॉर्क टाइम्स में छपी एक रिपोर्ट में प्रेस्ब्यटेरियन मिशनरी द्वारा कहा गया था, “दो तरह की बीमारियाँ और दोनों घातक – भूख से मरते सैकड़ों मूल निवासी और राहत सामग्री को चुराते राहतकर्ता।”

शुरुआत में रैंड ने राहत के कुछ कार्य किए थे। उसने एक अस्पताल शुरू किया और प्रभावित इलाकों से संक्रमण हटाने के अलावा संगरोध कैंप लगवाए। हालांकि, इन प्रयासों के बाद वह जल्द ही ऐसे रास्ते पर बढ़ गया, जिससे प्रभावित परिवारों के सम्मान को ठेस पहुँची और इससे चापेकर भाइयों के अंदर बदला लेने की आग भड़क गई।

दामोदर, बालकृष्ण और वासुदेव का जन्म एक रूढ़िवादी परिवार में हुआ था। यह परिवार कभी सम्पन्न हुआ करता था, पर व्यापार में घाटा हो जाने और इनके दादा विनायक के स्वच्छंद स्वभाव ने इनकी स्थिति बदल दी थी। इनका सारा पैसा पानी की तरह बह गया और ये ग़रीबी में डूबते चले गए।

तीनों भाई रूढ़िवादी विचारधारा और ब्रिटिश विरोधी सोच से प्रेरित थे। बाल गंगाधर तिलक द्वारा अपने अखबार ‘केसरी’ में इस्तेमाल की जाने वाली उत्तेजक भाषा से प्रभावित होकर इन्होंने रैंड के ख़िलाफ क़दम उठाने का फ़ैसला किया, क्योंकि उसने पुणे के कई परिवारों को अपमानित किया था।

जैसे ही प्लेग को रोकने के लिए अभियान शुरू किया गया, रैंड ने आतंक फैलाना शुरू कर दिया। इसने ऐसा दल तैयार किया, जिसके पास किसी भी घर में घुस कर उनके साथ कैसा भी व्यवहार करने का पूरा अधिकार था। यह टुकड़ी चेकअप के नाम पर आदमी, औरतों और बच्चों के कपड़े तक उतरवा देती थी और ऐसा कई बार सार्वजनिक रूप से किया जाता था। ये लोग संपत्ति को भी नष्ट कर देते थे।

लगातार हो रहे इस उत्पीड़न ने चापेकर भाइयों और ‘चापेकर क्लब’ के अन्य क्रांतिकारी सदस्यों को उस व्यक्ति के खिलाफ कदम उठाने को मजबूर किया, जिसने इसकी शुरुआत की थी। यह व्यक्ति था कमिश्नर वाल्टर चार्ल्स रैंड।

रैंड को गोली मारने के तुरंत बाद दामोदर को गिरफ्तार कर जेल भेजा गया और मौत की सज़ा दी गई। जेल में इनकी मुलाक़ात तिलक से हुई, जिन्हें भी गिरफ्तारी के बाद येरवडा जेल में रखा गया था। उन्होंने अपना अंतिम संस्कार हिन्दू रीति-रिवाज से करने की इच्छा व्यक्त की।

बालकृष्ण, वासुदेव और महादेव रानडे भी रैंड की हत्या में शामिल थे, पर ब्रिटिश सरकार उन्हें गिरफ्तार नहीं कर पायी थी। दुर्भाग्यवश द्रविड़ भाइयों ने, जो खुद भी चापेकर क्लब का हिस्सा थे, कुछ ब्रिटिश अफसरों को इनके ठिकानों की जानकारी दे दी थी। यह बात बालकृष्ण और वासुदेव को पता चल गई और उन्होंने द्रविड़ भाइयों को भी मार डाला, जिसके बाद उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया और मौत की सज़ा सुनाई गई।

इंकलाब के लिए गोरे अफसरों को गोलियों से भूनने वाले तीन भाई <<<

सन 1897 की बात है. उस समय पुणे शहर प्लेग जैसी खतरनाक बीमारी से जूझ रहा था. अंग्रेजों के लिए इससे अच्छी बात और कुछ भी नहीं थी. उनकी हुकूमत में मानो चार चाँद लग गए थे. ऐसा इसलिए क्योंकि बीमारी से जूझ रहे शहर पर इनके अत्याचार पहले से दोगुने हो चुके थे. लोगों को बेवजह ही मारकर अपनी बादशाहत कायम करना उनका पेशा बन चुका था. अगर उनके रास्ते का कोई रोड़ा था, तो वो थे भारत मां के वीर सपूत… आजादी की जंग में अपनी जिंदगी दांव पर लगाने वाले स्वतंत्रता सेनानी…

इन्हीं वीर सपूतों में अंग्रेजों को सोचने पर मजबूर करने वाले तीन भाइयों की दास्ताँ बहुत ही दिलचस्प है. इनकी जुगलबंदी ने न सिर्फ अंग्रेजों के छक्के छुड़ाए बल्कि गोरों के सरदारों के सीने में गोलियां उताकर ऐसा भूचाल खड़ा किया कि अंग्रेजी बादशाहत की चाल धीमी पड़ गयी. इस वारदात से गोरों का कलेजा कांप गया.

अंग्रेजों से लोहा लेने वाले उन तीन भाइयों को ‘चाफेकर बंधु’ के नाम से जाना जाता है. आज हम उस सफर पर चलेंगे जहाँ से स्वतंत्रता की लड़ाई में इनके योगदान को नजदीक से जान सकें. हम उस घटना को भी जानेंगे कि किस तरह इन्होंने अंग्रेजी अफसरों को मौत के घाट उतारा था. तो चलिए भारत मां के लाल ‘चाफेकर बंधुओं’ को जानने का प्रयास करते हैं–

बीमार पुणे वासियों’ पर अंग्रेज करते थे अत्याचार <<<

सन 1897 के दौर में पुणे शहर प्लेग से ग्रसित था. इसके पसरते पांव को देखते हुए प्लेग समिति का गठन किया गया था, ताकि लोगों को इसके प्रकोप से राहत दिलाई जा सके. परंतु गोरों के शासन ने सारी परिस्थितियां इसके उलट कर दी थीं. लोगों को राहत की जगह यातनाएं झेलनी पड़ रही थीं… इस समिति की जिम्मेदारी वाल्टर चार्ल्स रैंड को दी गई थीं. रैंड पुणे का तत्कालीन जिलाधिकारी भी था. इसलिए लोगों पर जुल्म करने और कहर बरपाने में वह थोड़ा भी पीछे नहीं हटता. कहते हैं जब तक वह भारतियों पर अत्याचार नहीं कर लेता तब तक उसका मन शांत नहीं होता था. यह प्रकृति उसके दिनचर्या में शामिल हो चुकी थी।
भारतियों के साथ वाल्टर चार्ल्स रैंड और एक अन्य अंग्रेज अधिकारी आर्यस्ट के द्वारा किया जाने वाला व्यवहार पंडित बाल गंगाधर तिलक और आगरकर को बेहद कष्ट दे रहा था. यहाँ तक की लोगों को नीचा दिखाने के लिए अंग्रेज मंदिरों व पूजाघरों में जूते और चप्पल पहनकर घुस जाया करते थे. इसका विरोध करने पर बाल गंगाधर तिलक और आगरकर कई बार जेल भी गए. यातनाएं सहने के बावजूद भी अंग्रेजों का विरोध किया जाना कम नहीं हुआ.

चाफेकर बंधुओं ने मिलकर हट्टे-कट्ठे युवाओं की टोली तैयार क, जिन्हें लाठी-डंडे, तलवार और अन्य शस्त्र चलाने का विधिवत ज्ञान दिया गया. ऐसा इसलिए किया गया ताकि गोरों द्वारा भारतियों पर किये जा रहे जुल्म का बदला लिया जा सके. आखिरकार समय ने करवट ली और उन्हें जिस समय का इंतज़ार था वह समय भी धीरे-धीरे नजदीक आ गया.

अंग्रेजों को उनके ही ‘जश्न’ में मारने का था प्लान…<<<

सन 1897 में 22 जून को पुणे के ही गवर्नमेंट हॉउस में महारानी विक्टोरिया के राज्यारोहण की हीरक जयंती मनाये जाने की तैयारियां चल रह थीं. इस कार्यक्रम में वाल्टर चार्ल्स रैंड और आर्यस्ट को भी न्योता दिया गया था. दोनों अंग्रेज अधिकारी आयोजन में शामिल होने के लिए पधार चुके थे. गवर्नमेंट हॉउस के साथ पूरा शहर जगमग उजियारों की रोशनी में डूबा हुआ था. एक के बाद एक हो रही जबरदस्त आतिशबाजी ने पूरे शहर की रंगत में चार चाँद लगा दिए थे.

एक तरफ अंग्रेज चकाचौंध में डूबे हुए थे. वहीं दूसरी ओर चाफेकर भाई उनसे पुणे में हो रही हिंसा का बदला लेने की सोच रहे थे. चाफेकर भाइयों को इससे अच्छा मौका नहीं मिलने वाला था. आयोजन के समय दामोदर हरि चाफेकर और छोटे भाई बालकृष्ण हरि चाफेकर अपने मित्र विनायक रानाडे के साथ पहुंचकर मौके की तलाश में लगे थे.

माना जाता है कि उन्होंने अंग्रेजों के इस जश्न को परवान चढ़ने दिया. वह चाहते थे कि हर कोई खुद को सुरक्षित समझे ताकि वह बाद में अचानक से हमला कर सकें. इसके साथ ही वह इंतजार करने लगे.

चाफेकर बंधुओं ने किसकी हत्या की थी <<<

दामोदर हरि चाफेकर ने २२ जून १८९७ को रैंड को और उसके सहायक लेफ्टिनेंट आयस्टर को गोली मारकर हत्या कर दी। यह भारत की आज़ादी की लड़ाई में प्रथम क्रांतिकारी धमाका था। रैण्ड ने प्लेग समिति के प्रमुख के रूप में पुणे में भारतीयों पर बहुत अत्याचार किए थे।

मुस्कुराते हुए फांसी पर चढ़े चाफेकर बंधु…<<<

इनाम के लालच में आकर दो भाई गणेश शंकर द्रविण और रामचंद्र द्रविण ने चाफेकर बंधुओं का पता अंग्रेजी हुकूमत को बता दिया. दामोदर हरि चाफेकर गोरों की नजरों से छुप न सके और पकड़े गए. परंतु बालकृष्ण अब भी अंग्रेजों की पकड़ से दूर थे. पकड़े जाने के बाद आदालत ने दामोदर को फांसी की सजा सुनाई. कहते हैं कि जेल में ही पंडित तिलक जी उनसे मिले और उन्हें भगवत् गीता भेंट की. सन 1898 में 18 अप्रैल को यरवदा जेल में भारत माँ के वीर सपूत दामोदर ने मुस्कुराते हुए फांसी के फंदे को चूम लिया. ऐसा कहा जाता है कि अंत समय तक भगवत् गीता उनके हाथों में थी.

इसके बाद बालकृष्ण ने खुद ही आत्मसमर्पण कर दिया. उधर वासुदेव चाफेकर अपने दोनों भाइयों की स्थिति देखकर आक्रोशित थे. इसलिए उन्होंने इनाम के लालच में पता बताने वाले दोनों द्रविण भाइयों को मौत के घाट उतार दिया! इसके बाद अंग्रेजों ने वासुदेव की तलाश शुरू कर दी. कुछ समय बाद वो भी पकडे गए. अंग्रेजी हुकूमत ने उन्हें भी फांसी के फंदे पर लटका दिया.

इसके ठीक पांचवे दिन इसी जेल में 12 मई को बालकृष्ण को भी फांसी दे दी गयी. तीनों भाइयों ने मुस्कुराते हुए फांसी के फंदे को चूमा और भारत मां के आँचल में हमेशा के लिए सो गए. चाफेकर भाइयों के मित्र महादेव रानाडे को भी फांसी की सजा मिली. इसके साथ ही भारत माँ के इन सपूत ने खुद को देश पर कुर्बान कर दिया…

चाफेकर भाईयों की इस वीरगाथा को बहुत कम ही लोग जानते हैं मगर यह है बहुत ही गौरवशाली. तीनों भाईयों ने अपनी जिंदगी भारत माँ पर कुर्बान कर दी. भारत की आजादी में बहुत से वीरों ने खुद की कुर्बानी दी है और उनमें से ही एक थे चाफेकर भाई. इनके बारे में आपकी क्या राय है कमेंट बॉक्स में हमें जरूर बताएं !

संक्षिप्त वर्णन <<<

नाम- दामोदर हरी चापेकर
जन्म -24 जून 1869
जन्मभूमि -पुणे महाराष्ट्र
पिता- हरि पंत चापेकर
नागरिकता -भारतीय
प्रसिद्धि – स्वतंत्रता सेनानी
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वासुदेव चापेकर ,बालकृष्ण चापेकर
मृत्यु- 18 अप्रैल 1898

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